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मर्दों के संग चलना है

चाँद की तरह निकलना है और सूरज जैसे ढलना है।
और  बराबर  हो  तुमको  मर्दों   के  संग  चलना  है।

जरा-जरा सी बात पे क्यूँ रो पड़ती हो तुम
अँधेरे से अब भी क्यूँ  इतना डरती हो तुम
काली नजरों से सबकी बचना  पड़ता है तुमको
फिर जाने क्यों इतना शृंगार सुघर करती हो तुम
घर से बाहर जब निकलो साथ किसी के निकलना है।
और  बराबर   हो   तुमको  मर्दों  के  संग  चलना  है।

कोख में अपनी  रख जिसको  तुम दुनिया में लाती हो
निज औलाद को भी तुम अपना नाम कहाँ दे पाती हो
छोड़ के इस घर को तुमको उस घर में जाना पड़ता है,
बेटी कभी, कभी  बीवी, फिर  तुम  माँ  बन  जाती हो
हो अनुकूल समय के ही तुमको हर रोज बदलना है।
और  बराबर  हो  तुमको  मर्दों  के  संग  चलना  है।

जाने किन नजरों में तुम सम्मान ढूँढती फिरती हो
रेल  बसों  में आरक्षित  स्थान  ढूँढती  फिरती  हो
छोड़ो  अब  रहने  भी  दो  ये तुमसे ना हो पायेगा,
अपने घर में ही तुम अपना मान ढूँढती फिरती हो
आँख मिचौली खेल तुम्हें तितलियों संग मचलना है।
और  बराबर  हो  तुमको  मर्दों  के  संग  चलना  है।

द्रौपदी बन पांचो संग तुमको अपना फर्ज निभाना है
बन  कुंती, बेटा  जन  तुमको  नदिया बीच बहाना है
ये  जंजीरें  बंधी  हुई  हैं  पांव  तुम्हारे सदियों से,
सीता भी बन पाई गर तो तुमको बन में जाना है
खूँटे से बंधकर ही बस तुम्हे कूदना और उछलना है।
और  बराबर  हो  तुमको  मर्दों  के  संग  चलना  है।

तुमने  ही  तो  परमेश्वर  का उसको है पदभार दिया
क्या हुआ जो पति ने तेरे तुझको जरा सा मार दिया
देखो  सिसकी  कहीं  तुम्हारी बाहर कोई न सुन पाये,
खोके पिता ने सबकुछ अपना तुमको ये परिवार दिया
कुंठा का विष पी तुमको दहेज़ की आग में जलना है।
और   बराबर   हो  तुमको  मर्दों  के  संग  चलना  है।

 

कुन्दन सिंह

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