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कविता

मर्दों के संग चलना है

कविता, हिन्दी साहित्य
चाँद की तरह निकलना है और सूरज जैसे ढलना है। और  बराबर  हो  तुमको  मर्दों   के  संग  चलना  है। जरा-जरा सी बात पे क्यूँ रो पड़ती हो तुम अँधेरे से अब भी क्यूँ  इतना डरती हो तुम काली नजरों से सबकी बचना  पड़ता है तुमको फिर जाने क्यों इतना शृंगार सुघर करती हो तुम घर से बाहर जब निकलो साथ किसी के निकलना है। और  बराबर   हो   तुमको  मर्दों  के  संग  चलना  है। कोख में अपनी  रख जिसको  तुम दुनिया में लाती हो निज औलाद को भी तुम अपना नाम कहाँ दे पाती हो छोड़ के इस घर को तुमको उस घर में जाना पड़ता है, बेटी कभी, कभी  बीवी, फिर  तुम  माँ  बन  जाती हो हो अनुकूल समय के ही तुमको हर रोज बदलना है। और  बराबर  हो  तुमको  मर्दों  के  संग  चलना&n
माँ वक्त वो ना रहा….

माँ वक्त वो ना रहा….

कविता, चिट्ठी पतरी, मुख्य, सोशल मीडिया, हिन्दी साहित्य
माँ वो वक्त वो ना रहा... ज़ब बचपन माँ तुम्हारे आंचल की छाँव में गुजरता था... ना कोई चिंता होती तब ना कोई फ़िक्र का पहरा रहता  था __ जब रोती कभी आँखें तो माँ चुप कराया करती थी.... अपने प्यार के उस आँचल में मुझे कही छुपाया करती थी.... जब रोज पापा के डर से सरारत कम हो जाया करती थी... किसी का डांटना चिल्लाना भी तब उतना नहीं अखरता था... आज की इस दुनिया मे सब उल्टा सा लगता है__ ना वो बचपन का प्यार अब कही भी दिखता है__ तब मतलब, स्वार्थ, पैसो की दुनिया भी नहीं होती थी__ जलन,  ईर्ष्या, द्वेष की ज्वाला भी ना होती थी __ आज तो हर पग-पग पर पैरों मैं जंजीरें हैँ__ ठुकराते हैँ सब यहां सब खूब ही मुझे रुलाते हैं__ झूठें किस्सों के किरदार भी मुझको कभी बनाते हैं___ माँ तब मे टूट जाता हु सबसे रूठ जाता हुँ __ तुझे याद करके माँ मैं अक्सर रो भी जाता हुँ __
जिंदगी के पड़ाव

जिंदगी के पड़ाव

कविता, मुख्य, हिन्दी साहित्य
  जिंदगी के पड़ाव पर हमनें चलते देखा , हमनें रुकते देखा | हमनें थकते देखा, थक कर रुक जाते और मुरझाते देखा, धरा के इस पञ्च तत्व में, विलय शून्य बन जाते देखा जिंदगी के पड़ाव पर हमनें चलते देखा , हमनें रुकते देखा || थक गए चलते-चलते, मंजिल का विश्राम नहीं, ऐसे मानों राह बड़ा, पथ का कोई ज्ञान नहीं | खोज रहे उस पावक पथ को, निज पाओं से चलते-चलते, जब थक कर चूर हुए अरमान, तब आसमान की ओर भी देखा, उजियारे भी चले गए, अब अंधकार के बादल बैठे, उन्नत मस्तक अरमानों का, अपमानों से सम्मानों तक, कभी मिलते देखा, कभी लड़ते देखा, कभी चलते देखा, कभी रुकते दखा, जिंदगी के पड़ाव पर हमनें चलते देखा , हमनें रुकते देखा || कभी पावों के निचे अंगारें, कभी प्रलय की घोर घटायें, कभी अपनों के कल कहार में, घोर घृणा और दीर्घ हार में , नफरत के इस अंगार में हमनें सुलगते देखा, हमनें धधकते देखा, नफरत के इस