जिज्ञासा :- आदर सहित निवेदन है की वैदिक मान्यता के अनुसार मृत्यु के उपरान्त तुरंत पूर्वजन्म हो जाता है | संभवतः बृहदारण्यक उपनिषद मे किसी कीड़े के माध्यम से कहा गया है की वह अपने अगले पैर अगले तिनके पर जमा कर फिर तुरंत पिछले को छोड़ देता है, उसी प्रकार आत्मा भी अगले शरीर मे तुरन प्रवेश (कर्मानुसार) कर लेती है |
जब यजुर्वेद के 39वें अध्याय के छठे मंत्र के पदार्थ व भावार्थ मे महर्षि स्वामी दयानंद जी ने जो लिखा उसे पढ़कर भ्रम पैदा हो गया है, कृपया अल्पबुद्धि के संशय को दर करने की कृपा करें |
समाधान:- बृहदारण्यक उपनिषद के जिस अंश का प्रश्न में उल्लेख किया गया है, तृण-जलुका एक परकार का कीड़ा होता है जो बिना पैर वाला होता है | वह एक तिनके (डाली आदि) से दूसरे तिनके (डाली आदि )पर जाते समय अपने अग्र (मुख) भाग को उठा कर, इधर-उधर घुमा कर, उपयुक्त स्थान प्राप्त होने पर अग्रभाग को दूसरे तिनके पर टिका लेता है व उसी के आधार से पिछले भाग को पिछले तिनके से उठा कर दूसरे तिनके पर ले आता है | इस प्रकार वह दो तिनकों के रिक्त भाग को पार करता है |
इस तृण-जलुका की तरह आत्मा को भी बताया गया | पहले तिनके के तरह पिछले जन्म (शरीर ) को व दूसरे तिनके की तरह अगले जन्म (शरीर) को बताया गया है | दृष्टांत का तात्पर्य यह प्राप्त होता है की आत्मा भी जब तक दूसरे जन्म (शरीर) का आधार नहीं बना लेता तब तक पिछला जन्म (शरीर) नहीं छोड़ाता | किन्तु यह बात पूरी तरह नहीं घाट सकती | अतः तात्पर्य यह लिया जाता है की आत्मा पूर्व शरीर को छोड़ कर तत्काल दूसरा शरीर धारण कर लेता है |
प्रश्न कर्ता के मन मे यही निष्कर्ष है | इस निष्कर्ष का यजु 39.6 महर्षि दयानंद के भाष्य से विरोध दिख रहा है, क्योंकि वहाँ जीव के कुछ काल भ्रमण करके जन्म लेने की बात काही गई है |
प्रश्नकर्ता ने लिखा है “ वैदिक मान्यता के नुसार मृत्यु के उपरान्त तुरंत पूर्वजन्म हो जाता है|” उनका “वैदिक”-मान्यता” का तात्पर्य आर्यसमाज ने सुनी जाने वाली मान्यता लेना चाहिये, जिसे वे “वैदिक-मान्यता’ कह रहें है |
जब स्पष्ट ही वेद मंत्र मे उस पर महर्षि के भाष्य से जीव का कुछ काल भ्रमण ज्ञात हो रहा है तो वही वैदिक मान्यता कहलाएगी, न की ‘तृणजलुका दृष्टान्त ‘ से लिया गया तात्पर्य| साक्षात “ वेद” से जानी गई बात उपनिषद (ब्राहण) से जानी गई बात से निश्चित ही बलवान होता है | वहीं “वैदिक मान्यता’ कहाँ जा सकता है |
अब ‘तृण-जलूका’ वाले दृष्टान्त को समझना अवस्यक है, जिससे की स्पष्ट हो सके की वेद व उपनिषद (ब्राहण) मे विरोध है या नहीं | दृष्टान्त का एक अंश ही दार्ष्टान्त मे घटता है, पूरा नहीं| जो अंश शंगत होता है वह लागू किया जाता है, असंगत अर्थ नहीं |
दृष्टान्त का ‘ स्वकर्तृत्व =कीड़े का स्वयं दूसरे तिनके पर जाना’ अंश आत्मा पर लागू नहीं होता, क्योंकि एक शरीर से दुसरे शरीर मे जाना पूर्णतया ईश्वर पर आधारित है, आत्मा की यह सामर्थ्य नहीं की वह स्वयं के यत्न से दूसरे शरीर में जा सके |