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हर्षो उलाश से मनाया जाएगा चंपारण सत्याग्रह 100 वी वर्षगांठ समारोह, भारत के पहले सविनय अवज्ञा आंदोलन के 100 वर्षों का जश्न मनाएं जो चंपारण सत्याग्रह के रूप में भी जाना जाता है। चंपारण सत्याग्रह के अनकही नायकों के बारे में अधिक जानने के लिए इस पेज को पढ़ें.

चंपारण सत्याग्रह 100 वी वर्षगांठ समारोह

चंपारण सत्याग्रह (नील की खेती से सत्याग्रह तक )

गांधीजी एवं चंम्पारण सत्याग्रह
गाँधी जी ने चम्पारण में अपना पहला कदम अप्रैल 1917 में रखा था। उन दिनों गांधी जी की भारत में कोई बड़ी पहचान नहीं थी। गांधीजी नील की खेती करने वालों को उनका सही हक दिलाना चाहते थे। अंग्रेज अधिकारियों ने गांधीजी को समझाने का प्रयास किया कि वे चम्पारण के लिए बाहरी व्यक्ति हैं। उनका चम्पारण से कोई लेना-देना नहीं है। अतः उनको चम्पारण के मामले से दूर रहना चाहिए। गांधीजी को आदेश दिया गया कि वे चम्पारण न जाएं। परन्तु गांधी जी ने उस आदेश की अवहेलना की और चम्पारण जाने का निर्णय लिया। लगभग एक साल के अन्दर गांधीजी ने सौ वर्षों से चली आ रही शोषणकारी नील की खेती से लगे दाग को धो डाला। साथ-साथ उन्होंने सत्याग्रह को एक ऐसे हथियार के रूप में प्रदान किया, जिसने हमारे देश को परतंत्रता से मुक्ति दिलायी, और वह भी मात्र तीस सालों के अन्दर।
भारत में नील का व्यापार एवं खेती

भारत में नील के व्यापार के संबंध में पश्चिमी यात्रियों का कहना है कि सबसे पहले वे सूरत से निर्यात करते थे। ईस्ट इंडिया कंपनी ने सूरत से नील का निर्यात सीधे इंग्लैण्ड करना आरम्भ किया तब उस व्यापार से अच्छा मुनाफा प्राप्त हुआ। इसके प्रभाव में आकर अमेरिका में उपस्थित यूरोपियन लोगों ने भी नील की खेती आरम्भ की और उनकी उपज अच्छी हुई जिसके प्रभाव से गुजरात में होने वाली नील की खेती ब्यावसायिक स्थर पर रूक गई और फिर से आरम्भ नहीं हो सकी। बाद में अमेरिकी निवेषकों को चीनी एवं कॉफी की खेती से अधिक ज्यादा फायदा मिलने लगा। जिसके पश्चात अमेरिका में नील की खेती को छोड़ दिया गया। इसके उपरान्त भारत में फिर से नील की खेती आरंभ हुई। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बंगाल में नील की खेती का प्रयोग 1777 में शुरू किया। नील की खेती में होने वाले मुनाफ़े के कारण अनेक कर्मचारियों ने कम्पनी से इस्तीफा दिया और खुद नील के खेतीहर बन गए जिन्हें बाद में नीलवर कहा गया। इनमें से एक थे फ्रान्कोइस ग्रान्ट जो तिरहत (मुजफ्फरपुर और दरभंगा) के पहले कलेक्टर (1782-85) थे। उन्होंने अपनी पूंजी से तीन फै़ट्रीयां स्थापित की। तिरहुत में 1810 तकं नील के उपक्रमों की सख्या 25 तक पहुँच गई। चम्पारण का पहला उपक्रम 1813 में बारा में कर्नल हिकी (Colonel Hickey) द्वारा स्थापित किया गया।

उसके उपरान्त तुरकौलिया, पिपरा, मोतिहारी और राजपुर की कोठियाँ स्थापित की गई। जैसे-जैसे समय व्यतीत हुआ, किसी प्रकार बेतिया राज में हिंदोस्तानी ठेकेठारों को हटा-हटाकर यूरोपियन लोगों को ठेकेदारी मिलती गई। उन लोगों ने ठेके पर ली गई जमीन पर नील की खेती रैय्यतों द्वारा अनैतिक एवं अवांछित तरीकों से करवाने लगे।

नीलवरों ने बेतिया राज पर उस समय अपना जोर जमा लिया जब बेतिया राज पर बहुत कर्ज हो जाने के कारण सन् 1888 ई में बेतिया राज ने विलायत में एक कर्ज 85 लाख रूपयों का लिया। इस कर्ज की एक शर्त यह थी कि श्री टी.एम. गिब्बन (जो एक भूतपूर्व नीलवर थे) बेतिया राज के मैनेजर बने रहेंगे। बेतियाराज के अंतिम पुरुष शासक, महाराज सर हरेन्द्र किशोर सिंह थे, जिनकी मृत्यु 1893 ई में हुई। महाराज की पहली पत्नी शिवरतन कुवर की मृत्यु 1896 में होगई और उनकी दूसरी पत्नी महारानी जानकी कुवर अपने पिता के पास इलाहाबाद में रहनें लगी। इसके उपरान्त बेतिया राज, 1897 में कोर्ट ऑफ वार्ड (Court of Ward) के अधीन आ गया और मिस्टर लविस (Mr Lewis) को राज का मैनेजर नियुक्त किया गया। इस बड़े कर्ज की अदायगी के लिए बहुत से गाँवों का मुकर्ररी बन्दोबस्ती नीलवरों के साथ किया गया था। यह बन्दोबस्ती 14 कोठियों के साथ हुआ था, जिनमें तीन मुख्य थे-तुरकौलिया, पीपरा, मोतिहारी। इस प्रकार जिले के आर्थिक तन्त्र पर एक शक्तिशाली यूरोपियन बिचोलियों का प्रादुर्भाव हो गया।
तिकठिया प्रथा का आगमन
तिकठिया प्रथा के अन्तर्गत चम्पारण के प्रत्येक रैयत को अपनी जमीन के प्रत्येक बीघा से (एक बीघा में 20 कट्ठा) तीन कट्ठा में अपने यूरोपियन जमीन्दार के लिए नील की खेती, 20, 25 और 30 वर्ष तक अनिवार्ये रूप से करनी पड़ती थी। और तो और किस खेत पर नील की खेती की जाएगी, रैयत की कितनी मजदूरी होगी, खेती की लागत इत्यादि सब कुछ तय करने का अधिकार यूरोपियन नीलवर के अधिकार क्षेत्र में था। आरंभ में सब कुछ मौखिक होता था परंतु, कुछ समय बाद रैयतों से लिखित रूप में अवांछनीय शर्तों पर समझौते होने लगे। किस खेत में नील की खेती होगी वह चुनने का अधिकार नीलवर को था, अतः रैयत के पास जो सबसे उपजाऊ जमीन होती थी वह उसके हाथ से निकल जाता था। इस व्यवस्था के अधीन रैयत नीलवर का नौकर हो जाता था। अगर फसल अच्छी हुई तो उसे पैदावार के लिए एक तय रकम (प्रति बीघा की दर से) दे दी जाती थी। अगर किसी वजह से फसल खराब हो गई तो कम रकम दी जाती थी।
जो ज़मीन रैयतों से ली जाती थी वह रैयतों को तीन से पांच वर्ष के बाद फैक्ट्री द्वारा वापस कर दी जाती थी क्योंकि वह ज़मीन नील की खेती के लायक नहीं रह जाती थी। इसका मुख्य कारण था, नील की जड़ गहरी होती थी (tap root) जो ज़मीन के निचले हिस्से से अधिक पोषक तत्व ले लेती थी। इस प्रकार वापस की गई जमीन के बदले में अनुबंध की समाप्ति के अन्दर रैयत को उतनी ही जमीन फैक्ट्री को देनी होती थी।
रैय्यतों का आन्दोलन एवं प्रशासनिक सुधार
बंगाल में हुए व्यापक आंदोलन के उपरांत तत्कालीन भारत सरकार ने 1860 ई में एक आयोग (ईस्ट इंडिया इंडिगो कमिशन) नियुक्त किया था। सरकार के पास रैय्यतों के अपहरण एवं हिंसा की अनेक शिकायतें आ रही थी। श्री लाल बिहारी डे ने Bengal Peasant’s Life नामक किताब लिखी जिसमें बंगाल के किसानों की दुर्दशा का सुंदर वर्णन था। श्री दीनबंधु मिश्रा ने नील दर्पण नामक नाटक लिखा था। यह नाटक मज़दूरों के जीवन में घटने वाली घटनाओं के कटु सत्य का वर्णन करता है। नील दर्पण को बंगाल में काफी पढ़ा एवं सराहा गया। बंगाल में पढे लिखे लोगों ने रैयतों का साथ दिया ।
इंडिगो कमिशन ने रैय्यतों की मुख्य मांगों को मान लिया और राय दी की –
  1. यदि नील रैयतो से पैदा कराया जाय तो उनको उचित कीमत मिले; समझौता से खेति हो तो समझौता छोटी अवघी के लिए हो और हिसाब साल की साल ठीक कर दिया जाय ।
  2.  जिस खेत में नील बोना हो, वह सट्टे में ही लिख दिया जाय ।
  3.  खेत से कारखाने तक नीलवर अपने ही खर्च से नील के पौधे ढोकर ले जाया करें ।
  4. रैयत को अधिकार दिया जाय की यदि वे चाहे तो अपनी खेत में नील के बाद और कोई भी फंसल बो सकें
  5. सरकार ने प्राय सब बातों को स्वीकार किया । इस रिपोर्ट पर हुई कार्यवाही का यह फल हुआ की थोडें ही दिनों में बंगाल से एक बारगी नील की खेती उठ गई ।
बंगाल की तुलना में बिहार में ऐसा कुछ नहीं हो पाया क्योंकि बिहार में शिक्षित एवं लेखकों ने आगे आकर रैय्यतों के हित में नेतृत्व नहीं संभाला। इंडिगो कमिशन का कार्य भारत सरकार ने बंगाल के जिलों तक ही सीमित रखा था। रैयतों पर जोर जबरदस्ती, अपहरण, मार-पीट की घटना आम बात थी और रैयतों का जीवन 1916 में भी उतना ही सधर्षपूर्ण था जितना 1831 या 1860 में था।
कृत्रिम नील का जर्मनी में अविष्कार
नील की खेती एवं व्यापार में जबरदस्त धक्का तब लगा जब जर्मनी में 1898ई में कृत्रिम नील का अविष्कार हुआ। इसका प्रभाव इतना बड़ा था कि बिहार में होने वाली नील की खेती और सुधर नहीं पाई। 1895-1900 (औसतन) में नील की 17,734 मन पैदावार थी जो घटकर 1905-06ई में 8,714 मन हो गयी। 1900 ई के करीब में 186-232 रुपये प्रति मन की दर से बिकने वाले नील की कीमत 1906 में घटकर 130-158 रुपया प्रति मन ही रह गई।
1907 ई का आन्दोलन
जैसे तैसे समय 1907ई तक चलता रहा और किसानों में नील की खेती के प्रति विरोध बढ़ता गया। 1908 में साठी (बेतिया के समीप एक स्थान) रैयतों ने सामुहिक रूप में नील की खेती करने से मना कर दिया। रैय्यतों के सूत्रधार श्री शेख गुलाब थे जिन्होंने रैय्यतों के मुकदमा लड़ने के लिए एक सामुहिक राशि को जमा भी किया। थोड़े ही समय में आंदोलन जंगल की आग की तरह पूरे बेतिया सब डिविजन में फैल गई और रैय्यतों ने श्री शेख गुलाब एवं श्री शीतल राय के नेतृत्व में ‘तीन कठिया’ प्रथा अनुसार नामित जमीन में भी अन्य फसल की बोवाई करनी शुरू कर दिया। नीलवरों ने प्रशासन की मदद से दंडात्मक कार्यवाही आरंभ कर दिया।
प्रशासन ने घुड़सवार सैनिक भेजे और आन्दोलन को प्रशासनिक शक्ति से दबा दिया गया। करीब 50 केस दर्ज किए गए और लगभग 300 लोगों को सजा मिली जिनमें राधुलमल ने अपने अपराध को स्वीकार किया और उन्हें 3000/- रुपये के दण्ड पर छोड़ दिया गया तथा शितल राय को अढ़ाई वर्ष के कारावास के साथ 1000/-रुपये का दण्ड भुगतना पड़ा।
चम्पारण में शान्ति स्थापित होने के बाद सरकार ने जाँच के लिए मिस्टर गौरले जो कि कृषि विभाग में निदेशक थे, को नामित किया, जिससे रैय्यतों की परेशानियों को समझा जा सके। मिस्टर गौरले ने अपनी रिपोर्ट (1909) में लिखा था कि चम्पारण में नील की खेती शुद्ध व्यापारिक स्पर्धा के आधार पर की जानी चाहिए न कि दबाव और मजबूर करके।
बंगाल के उप राज्यपाल Sir Edward Baker ने दार्जिलिंग एवं पटना में नीलवरों के साथ सम्मेलन किया जिसके बाद नील के दाम में बढ़ौतरी हो सकी। श्री गौरले ने अपने रिपोर्ट के साथ दो स्टील के बक्से भी भेजे थे जिसे उन्होंने सबसे अच्छा सबूत माना था। दोनों स्टील के बक्से में खेतों से ली गई मिट्टी थी जिसमें नील एवं धान के बीज मिले हुऐ थे – इससे यह साबित होता था कि किसानों के उन खेतों में नील की बुवाई की गई, जिनमें पहले धान की बुवाई हो चुकी थी।
नील का उद्योग बंद होने के कगार पर था। उस समय 1914 ई में जर्मनी से युद्ध आरम्भ हो गया, तथा सस्ता कृत्रिम नील का आयात जर्मनी से इग्लेण्ड होना बन्द हो गया। फलस्वरूप फिर चम्पारण में नील की खेती शुरू हुई। नील की खेती का रकबा कम पड़ने पर नीलवरों ने कमाने के दूसरे रास्ते निकाल लिए। नीलवरों ने नील सम्बन्धित समझौतों को रद्द करना चाहा । निलवरों ने रैयतों के सामने प्रस्ताव रखा जिसके अनुसार बढी हुई मालगुजारी देने के बाद नील की खेती से मुक्ति हो जायगी । मुक्कररी ठेके के गाव से मालगुजारी 60 से 75 प्रतिशत तक बढ़ाये गये । इस बढ़े हुए दर को ’’शरहबेसी’’ कहा जाता था। पहले 1 रूपये मालगुजारी था तो रैयत 1-10 से 1-12 देरहें थे। रैयतों का मानना था कि नील की खेती के दिन लद गये हैं और इन फैक्टी्यों को बन्द होने का समय आ गया था । रैयत यह नहीं चाहते थे कि यह बोझ उनके आने वाली पीढियों पर अनावश्यक तरिके से लादा जाए ।
जो गाँव अस्थायी ठेकेदारी प्रथा के अन्दर आते थे उनमें जो भी मालगुजारी आती थी उसका 9/10 भाग जमीन्दार को जाता था। इसलिए निलवरों को लगा कि अगर ठेकेदारी प्रथा के अधीन के गॉवों में शरहबेसी लगाई जाती है तो निलवरों के पास जो भी बढी हुई रकम जमा होगी उसका 9/10 भाग जमीन्दार को देना होगा। अतः निलवरों ने ठेकेदारी प्रथा के अधीन के गॉवों से एक मुश्त रकम, नील खेती से मुक्ति के लिए, प्रति बीघा रूपये 40 से रुपये 100 तक लिया । इस रकम को ’’तवन‘‘ कहा गया । यह राषि 20 सालों की मालगुजारी के बराबर थी।
नील की खेती करने वाले यूरोपियन ठेकेदारों (नीलवरों) के अलावा और यूरोपियन ठेकेदार थे जिनके ठेका के गाँव में नील की खेती नहीं होती थी। चूकि इनके पास कोई नील की खेती नहीं थी जिससे वे ’’शरहबेसी’’ या ‘‘तवन’’ मालगुजारी के रूप में ले सकें तो इन उपक्रमों ने ‘‘अबवाब’’ के नाम से अनेक कर जमा करवा लिए थे।
‘‘अबवाब’’ की दर रैयती मालगुजारी की 30 प्रतिशत से 120 प्रतिशत होती थी। जब रैयत रकम जमा करता था तो यह रकम रैयत के ‘‘अबवाब’’ खाते मे जमा कर दी जाती थी। मालगुजारी की रसीद उस समय दी जाती थी जब रैयत सारी देनदारी, उचित अथवा अनुचित, को जमा करां देता था।
समान्य दस्तुरी के रुप मे बहुत सारे ‘‘अबवाब’’ (करीब 40 प्रकार के) लिए जाते थे । ‘‘अबवाब’’ के विषय में यह पाया जाता है कि स्थान-स्थान पर यह अलग-अलग प्रकार का होता था। कुछ ’अबवाब’ निम्नवर्णित है ।
1. बपही पुतही – जब कोई रैयत मर जाता था तो उसके वारिस से कर लिया जाता था। बंगांल टेनेन्सी एक्ट के अनुसार रैयत को अपने पुरखों की जायदाद पर कानूनन हक था तो भी कोठी वाले बिना रकम लिऐ वारिस को अपने पुरखों की जायदाद का मालिक नहीं समझते थे।
2. मडवच- 1-1/2 रूपये . लड़की की शादी के समय कोठीवाले लेते थें।
3. मेटमाफी -कोठी वालों के पास अपनी जीरात थी उस जमीन को रैयतां के हल बैल से आबाद किया जाता था । रैयतों को हल बैल भेंट के रुप में देना पडता था। अन्यथा एक तय रकम भेट माफी के रूप में अदा करनी पडती थी ।
4. सगोड़ा -अब किसी विघवा की सगाई होती थी, तब उससे 5 रुपऐ वसूल किया जाता था ।
5. हथीहही – नीलवर और कोठीवाले यूरोपियन लोग शिकार करने जाते थे। इसके लिए उन्हें हाथी खरीदनी पड़ती थीं इसके लिए रैयतो से रकम लिया जाता था।
6. घोडही, मोटरही/ हवाही, नवही – जब नीलवर/ कोठी वाले घोड़े, मोटर गाड़ी (हवा गाडी) अथवा नाव खरीदते थें तब यह लेभी लिया जाता था।
7. अमही, कटहली – जब आम एवं कटहल की अच्छी पैदावार होती थी तो नीलवर/ कोठीवाले रैयतों में बाट देते थें। बाटने के तुरन्त बाद कम्पनी का चपरासी कीमत वसूल करने चला आता था, जो बाजार भाव के अनुसार न होकर, रैयत की आर्थिक स्थीति के अनुसार होता था।
8. आमदी सलामी – जब कभी निलवर/कोठीवाला या फैक्टरी का कोई अधिकारी, किसी गॉव जाता था तो रैयतो को सलाम करने आना होता था और फैक्टरी के कर्मचारियों के पास एक रूपया जमा करना पड़ता था। अन्यथा परिणाम भुगतना पड़ता था।
1793 ई में जब स्थायी बंदोबस्ती की गई, उसी समय से प्रशासन की और से यह आदेश हुआ था की, कोई जमींदार रैयतो से ’’अबवाब’’ नही लेगा। बंगाल टेनेन्सी आक्ट 1885 के प्रावधानों के तहत अगर कोई जमींदार ’’अबवाब’’के रूप मे कोई रकम लेता है तो उसे उस तकम का दुगना दण्ड के रूप में देना होगा। स्मरण रहे की चम्पारण एग्रेरियन कमिटी, 1917 के सामने अपने बयान में अनेक नीलवरों ने अबवाब लेना स्वीकार किया था।
‘‘शरहबेसी’’ के वजह से मोतिहारी, तुरकौलिया एव पीपरा में स्थित फैक्टरी के इलाकों में सबसे ज्यादा असन्तोष की आवाज उठी। रैयतो ने लगान बढ़ोतरी के सम्बप्ध में सरकार के पास अनेक पत्र भेजें जिसमें एकतरफा लगान बढ़ाने की प्रक्रिया को रोकने का अनुरोध था। इन रैयतों में एक थे श्री लोमराज सिंह जिन्होनें तिरहुत के कमिशनर को एक आवेदन पत्र दिया जिसमें 700 से ज्यादा लोगों ने अपना हस्ताक्षर किया था। श्री लोमराज सिंह के प्रयासो के कारण श्री नोरमन जो पिपरा फैक्टरी के मैनेजर थे, काफी क्रुद्ध हुए तथा उन्होनें श्री लोमराज सिंह के अलावा 14 अन्य लोगों पर मानहानि का मुकदमा दायर किया । श्री लोमराज सिंह को 6 महिने का कारावास तथा 24,000 रूप्ये का जुर्माना हुआ परन्तु जिला जज ने 1915ई के मजिस्ट्रेट के आदेश को खारिज कर दिया।
गॉधी जी का आगमन

लखनउ के कॅाग्रेंस सम्मेलन में, जो दिसंबर 1916 मे हुआ था, भारत के अनेक हिस्सों से लोगों का आना हुआ था। उनमें एक श्री राज कुमार शुक्ला भी थे । श्री राज कुमार शुक्ल ने पहले श्री लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक तथा श्री मदन मोहन मालवीय से सर्म्पक किया और नील की खेती से जुडे रैयतो के शिकायतों को बताया परन्तु उन लोगों ने यह बताया कि उस समय कॉग्रेस के पास राजनीतिक आजादी बड़ा मुददा था। श्री राज कुमार शुक्ल एक किसान के रूप मे आ रही दिन प्रति दिन की समस्याओं से बहुत आहत थे। उन्होनें गॉधी जी द्वारा दक्षिण अफ्रिका में समझौतो के अधीन कार्यरत मजदूरों (indentured) की भलाई के लिए किए आन्देलन के विषय मे सुन रखा था। अत; उन्होनें गांधीजी से मिलने का फैसला किया । श्री राज कुमार शुक्ल अपने साथ श्री बज्र किशोर प्रसाद को ले गऐ तथा प्रथम मे उन्होने गॉधी जी के चरण स्पर्ष किया तथा चम्पारण के रैयतो की दूर्दशा पर कॉग्रेस के सम्मेलन मे एक प्रस्ताव लाने का आग्रह किया। गॉधीजी ने उन लोगों की बात शान्तिपूर्वक सुनने के बाद स्पष्ट रूप से कहा कि वे अपना कोई मत नहीं दे सकते जब तक वे खुद अपनी ऑखो से वस्तुस्थिति न देख ले और उन्होने श्री बज्रकिशोर प्रसाद से आग्रह किया वे खुद कॉग्रेस के सम्मेलन में प्रस्ताव लाये।

गान्धीजी ने अपनी आत्मकथा में श्री राज कुमार शुक्ल से पहली बार मिलने का वर्णन इस प्रकार किया है :-

’’ राजकुमार शुक्ल नामक चम्पारण के एक किसान थे। उन पर दुखः पड़ा था। यह दुखः उन्हे अखरता था। लेकिन अपने इस दुखः के कारण उनमे नील के इस दाग को सबके लिए धो डालने की तीव्र लगन पैदा हो गई थी। जब मै लखनउ कॉग्रेस मे गया, तो वहॉ इस किसान मे मेरा पीछा पकड़ा। वकिल बाबू आपको सब हाल बतायेगें.’’………. ये वाक्य वे कहते जाते थे और मुझे चम्पारण आने का निमंत्रण देते जाते थे।………
लखनउ से मै कानपूर गया था। वहॉ भी राज कुमार शुक्ल हाजिर ही थे। ’’ यहॉ से चम्पारण बहुत नजदीक है । एक दिन दे दीजिए।’’ ’ अभी मुझे माफ कीजिए पर मै चम्पारण आने का वचन देता हूँ।’’ यह कह कर मै ज्यादा बंध गया।
मैं साबरमती आश्रम गया तो राज कुमार शुक्ल वहॉ भी मेरे पीछे लगे ही रहे’’ अब तो मुकर्रर कीजिए। ’’ मैने कहा मुझे फलॉ तारीख को कलकत्ता जाना है वहॉ आइये और मुझे ले जाईए।कहा जाना, क्या करना और क्या देखना, इसकी मुझे कोई जानकारी न थी। कलकत्ता मे मुझे भूपेन्द्र बाबू के यहॉ मेरे पहुचने से पहले उन्होने वहॉ डेरा डाल दिया था। इस अपढ़, अनगढ़ परन्तु निश्चयवान किसान ने मुझे जीत लियां।“
बज्र किशोर बाबू के प्रस्ताव मे मुख्य मांग थी कि सरकार एक मिली-जुली समिति गठित करे जिनमे सरकारी और गैर सरकारी व्यक्तियों की सहभागिता हो । यह समिति किसानो की सहायता के साथ उत्तर बिहार के रैयतो एव यूरोपियन निलवरो के बीच बिगड़ते सम्बन्धो मे कैसे सुधारे लाया जा सके इस बिन्दू पर अपनी राय व्यक्त करें। श्री राज कुमार शुक्ल ने कॉग्रेस के मंच से रैयतों के प्रतिनिधि के रूप में, अपना भाषण दिया तथा प्रस्ताव का समर्थन किया।
3 अप्रैल को गॉधी जी ने राज कुमार शुक्ल को एक तार द्वारा सूचित किया कि वे कलकत्ता आने वाले है और श्री भूपेन्द्रनाथ बासु के निवास पर रूकेगे तथा गॉधी जी ने श्री राज कुमार शुक्ल से वहॉ मिलने का अनुरोध किया । गॉधी जी के कलकत्ता पहूँचने के पहले श्री राज कुमार शुक्ल श्री भूपेन्द्र नाथ बाबू के घर पर विराजमान थे। श्री राज कुमार शुक्ल एवं गांधी जी कलकत्ते से पटना के लिए चले और 10 अप्रैल 1917 को सुबह पहुंचे। गांधी जी को राजकुमार शुक्ल ने पटना में राजेन्द्र बाबू के घर ले गये। दुर्भाग्य से राजेन्द्र बाबू पटना में नहीं थे । तब गांधीजी को मौलाना मजरूह हक का स्मरण हुआ चूँकि वे दोनो पहले मिल चुके थे। गॉधी जी ने एक पत्र के द्वारा पटना आने की सुचना भेजी तथा अपना आने का कारण भी बताया। मौलाना मजरूह हक तुरन्त अपनी मोटर कार लाये तथा गान्धी जी को अपने घर चलने का आग्रह किया। मौलाना मजरूह हक द्वारा गॉन्धी जी को जानकारी हुई कि निलवरो के संघ का कार्यालय मुजफ्फरपुर मे है तथा वहीं तिरहुत के आयुक्त का भी कार्यालय है अतः उन्होने पहले मुजफ्फरपुर जाने का निर्णय लिया। गान्धी जी को पता था कि मुजफ्फरपुर के कालेज मे कृपलानी जी शिक्षक है। गॉधी जी की मुलाकात कृपलानी जी से शान्ति निकेतन मे पहले हो चूकी थी। गॉधी जी ने उसी दिन रात को गाड़ी से अपने मुजफ्फरपुर आने की सूचना तार द्वारा दिया। कृपलानी जी, ग्रीर भूमिहार बाभन कालेज मे शिक्षक थे, तथा कालेज होस्टल के वार्डन के हैसियत से एक छोटे कमरे मे रहते थे। जब कृपलानी जी के छात्रों को पता चला तब वे लोग भी कृपलानी जी के साथ हो गऐ।
ट्रेन आधी रात के करीब मुजफ्फरपुर आई तथा कृपलानी जी के अलावा गॉधी जी को कोई पहचानता नही था। कृपलानी जी की जब गॉधी जी से मुलाकात हुई उस समय उनके पास एक बंडल था जिसमें उनके कागज थे तथा उनका अतिरिक्त बंडल जिसमे कपड़े तथा उनका बिछावन था वह राजकुमार शुक्ल के पास था । छात्रों ने गॉधीजी की आरती उतारी, जो गॉधी जी को कुछ अटपटा सा लगा। गॉन्धी जी को कृपलानी जी ने अपने सहकर्मी श्री मलकानी जी के घर मे रखने का इन्तजाम किया।
11 अप्रैल को गॉधी जी ने श्री विलसन से मुलाकात किया, जो निलवरों के संघ के सचिव थे। गॉधी जी ने उनको बताया की उनके आने का मुख्य लक्ष्य यह जानना है कि, क्यों निलवरों एवं रैयतों के सम्बन्ध खराब है तथा गॉधीजी ने उनसे इस जॉच कार्य मे मदद की अपेक्षा की। उसी दिन कुछ वकिलों ने गॉधी जी से मुलाकात किया तथा उन्हे अपने साथ ही रहने का आग्रह किया। वकीलो के इस आग्रह के बाद, गॉधी जी श्री गया प्रसादसिंह के घर रहने आ गये।
12 अप्रैल 1917 को गान्धीजी ने एक पत्र तिरहुत के कमिश्नर श्री एल. एफ. मौर्सहेड को लिखा कि उन्होनें काफी कुछ सुन रखा है उन भारतीयों के बारे में, जो नील की खेती से जुडें है। उनके आने का लक्ष्य है कि वे खुद यह जाने की वस्तुस्थिति क्या है । गॉधी जी ने अपने पत्र मे कमिश्नर से मिलने की इच्छा जताई। जिससे वह बता सके कि उनकी जॉच का क्या मकसद है और यह भी जानना चाहेगें कि प्रशासन उनकी इस कार्य मे क्या मदद कर सकती है।
गॉधी जी 13 अप्रैल 1917 को कमिश्नर श्री मोर्सहेड से मिले तथा यह बताया की उनके पास अनेको संदेश आए है जिनमें उनसे अनुरोध किया गया है कि वे नील की खेती से सम्बन्धित लोगों की दशा की जॉच करे । यह भी जानना चाहा कि प्रशासन उनकी इस कार्य मे क्या मदद कर सकता है। गॉधी जी ने स्पष्ट कहा कि किसी प्रकार की गड़बड़ी करने की उनकी मंशा नहीं है परन्तु वह जानना चाहते है कि सही स्थिति क्या है और क्या लोगों की मांगो को अधिकारियों की जानकारी मे लाया जा रहा है। कमिश्नर ने गॉधी जी को बताया की रैयत अपनी मांगो को प्रस्तुत करने मे पीछे नहीं है और सरकारी तंत्र अपनी शक्ति का इस्तेमाल कर, शिकायतो को दुरूस्त करने मे लगे है।कमिश्नर ने गॉधी जी से कहा कि एक अजनबी का आकर सरकारी अधिकारियों के कार्य के बीच मे दखल देना, उन अधिकारियों को उलझन मे डाल देगा। कमिश्नर ने गॉधी जी के साथ हुई मुलाकात मे मुजफ्फरपुर के जिला मजिस्ट्रेट श्री वेर्स्टन को भी बुला लिया था जिन्होने गॉधीजी से इस जॉच से होने वाले फायदे के बारे मे जानना चाहा तथा बताया की यह दखल नीलवरों, रैयतो एवं अधिकारियों के बीच, खेदजनक रूप मे कटुता पैदा कर सकता है। गॉधी जी को कमिश्नर से मिलने के बाद लग गया कि प्रशासन से कोई मदद नही मिलने वाला है ।
गॉधीजी के आने कि शुचना पाकर ब्रज किशोर बाबू भी मुजफ्फरपुर आगए । वे एक वरिष्ठ वकिल थे तथा मुन्सीफ एवं जिला अदालतो मे रैयतो के मुकदमे लड़ते थे। उन्होने बिहार एंव उड़ीसा विधान परिषद मे रैयतो का मुद्दा एंव नील की खेती से सम्बन्धित मामला अनेको बार उठाया था। ब्रज किशोर बाबू ने गॉधीजी को सारी जानकारी दिया। गॉधीजी ने नील सम्बन्धी कुछ मुकदमो का अध्ययन किया तथा अपनी राय व्यक्त किया कि अब हमे मुकदमें लड़ना बन्द कर देना चाहिए। उनका कहना था कि इन मुकदमो से लाभ कम होता है । रैयत कुचल दिए जाते है, वे लोग भयभीत है तथा कचहरियों के मार्फत थोड़ा ही इलाज हो सकता है । गॉधीजी ने सभी लोगों को बताया कि सच्ची दवा तो उनके डर को भगाना है। उन्होने मन बना लिया कि जब तक तिनकठिया प्रथा रद्ध नहीं होगी तब तक चैन से बैठ नहीं सकता । गॉधीजी ने सभी वकिलों से कहा कि उन्हे उनकी वकालत की शक्ति का कम ही उपयोग होगा परन्तु उनको लेखक और दूभाषिए के रूप मे काम करना पड़ेगा, साथ-साथ गॉधी जी ने यह भी कहा कि इसमे जेल भी जाना पड़ सकता है । गॉधी जी ने यह अहसास दिलाया कि सब कुछ सेवाभाव से और बिना पैसे के होना चाहिए। ब्रज किशोर बाबू तथा सभी वकिलो ने आपस मे विचार विमर्श किया और गॉधीजी को बताया कि ’’हम इतने लोग, आप जो काम हमे सौपेगें, वह कर देने के लिए तैयार रहेगें।
गॉधी जी समझ गये थे कि सरकार उन्हे जॉच करने से रोकेगी और उन्हे आशंका थी की जेल जाने का समय उनकी अपेक्षा से पहले ना आ जाये।उन्होने मन बना लिया कि अगर गिरफ्तारी होनी ही है, तो मोतिहारी मे हो और संभव हो तो बेतिया मे हो । अतः वहॉ जल्दी से जल्दी पहुचने का फैसला किया।
15/04/1917 को दोपहर की गाड़ी से गॉंधी जी मोतिहारी चले गए तथा मोतिहारी में श्री गोरख प्रसाद के घर में रुके । श्री गोरख प्रसाद जी का जन्म ग्राम अपहर, सिवान में हुआ था तथा उनके पिताजी का नाम श्री अक्षयवट लाल था । पहले उन्होंने छपरा में वकालत की परन्तु बाद में मोतिहारी मुन्सिफ अदालत में वकालत करने लगे । गॉंधी जी ने चम्पारण जाने से पहले ब्रज किशोर बाबु से आग्रह किया कि उन्हें दुभाषिये की आवश्यकता होगी क्योंकि वे वहॉं की भाषा बोल और समझ नहीं सकते थे । विचार-विमर्स के बाद यह तय हुआ कि बाबु रामनवमी प्रसाद एवं बाबु धरनिधर प्रसाद गॉंधी जी के साथ मोतिहारी जाऐगे।
गॉंधी जी करीब तीन बजे मोतिहारी पहुचे तथा रास्ते में प्रत्येक स्टेशन पर रैयतों ने उनका स्वागत किया । गॉंधी जी के श्री गोरख प्रसाद के मकान पर पहुचते ही वहॉं भी जनता की एक बडी भीड़ इकटठी हो गई थी। उसी समय गॉंधी जी को यह जानकारी मिली कि मोतिहारी से करीब पॉंच मील दूर जसौलीपटटी ग्राम में, एक प्रतिष्ठित किसान पर अत्याचार हुआ है। उसी समय यह निर्णय हुआ कि अगले दिन 16/04/1917 को सुबह तीनों लोग जसौलीपटटी ग्राम जाऐगे । जसौलीपटटी, ग्राम जगीराहा नील फैक्टरी के करीब है जिला मजिस्ट्रेट को जैसे ही पता चला कि गॉंधी जी जसौलापटटी जाने वाले हैं उन्होंने तिरहुत आयुक्त के आदेशानुसार सीआरपीसी की धारा 144 के तहत एक नोटिस जारी कर दिया । गॉंधी जी अपने साथियों के साथ एक हाथी पर सवार होकर चले थे और रास्ते में उनको एक पुलिस के उप निरीक्षक श्री अयोध्या प्रसाद तिवारी ने रोका और यह आग्रह किया कि वे लोग जसौली जाने से पहले जिला मजिस्टेट से मिल लें । गॉंधी जी उपनिरीक्षक के साथ मोतिहारी लौटने लगे और अपने दोनों साथियों, श्री धरनीधर बाबु तथा रामनवमी बाबु को जसौली जाने का आदेश दिया । श्री कुरवाल अली, उप निरीक्षक जसौली जाने वाले लोगों के साथ गए । लौटने का रास्ता गॉंधी जी ने बैल गाड़ी से शुरु किया तथा रास्ते में एक इक्का मिला और सभी बैलगाड़ी छोड़ इक्का पर सवार हो गए। कुछ दूरी पर एक टमटम पर एक पुलिस अधिकारी आते दिखे, वे पुलिस के डिप्टी अधीक्षक थे । गॉंधी जी उसी टमटम पर सवार हो गए । कुछ दूर जाने पर उस पुलिस अधिकारी ने टमटम रोककर गॉंधी जी से कहा कि आपके लिए एक नोटिस है तथा गॉंधी जी ने नोटिस को शान्तिपूर्वक पढ़ा और मोतिहारी आकर उसकी रसीद अधिकारी को सौंप दिया । इस नोटिस का सारॉंश इस प्रकार था ‘‘आपकी उपस्थिति से इस जिले में शान्ति भंग और प्राण हानि होने का डर है, इसलिए आपको हुक्म दिया जाता है कि आप पहली गाड़ी से चम्पारण छोड़ कर चले जाइए’’।
गॉधीजी धारा 144 के नोटिस को लेकर अपने निवास स्थान आ गऐ और उन्होन करीब दो बजे जिला मजिस्ट्रेट को एक पत्र भेजा जिसमे गॉधीजी ने लिखा की सर्वसाधारण के प्रति उनका जो कर्तव्य है उसके निर्वाहन के लिए वे इस जिले को नहीं छोड़ सकते तथा स्पष्ट किया की अधिकारी की राय मे उन्होने आज्ञा का उल्लंघन किया है तो वे जो दंड हो, उसे सहने को तैयार हैं। गॉधी जी ने तिरहुत आयुक्त के इस कथन का घोर विरोध किया जिसमे गॉधीजी का उद्धेश्य आन्दोलन करना बताया गया था। उन्होने अपनी इच्छा को फिरसे दोहराया की उनका लक्ष्य सत्य जानना है तथा जब तक वे स्वतंत्र हैं अपनी इच्छा पूरी करते रहेगें।
गॉधीजी ने घटना चक्र्र की सूचना श्री एच. एस. पोलक, माननीय मदन मोहन मालवीय, श्री राजेन्द्र प्रसाद तथा भारत मे अनेक नेताओ के पास तार द्वारा भेज दिया। गॉधीजी ने एक पत्र बाईसराय श्री लोर्ड चेल्मस फोर्ज के निजी सचिव को भी 16.04.1917 को भेजा, जिसमे उन्होने मुजफफरपुर तथा मोतीहारी में घटित घटनाओ का वर्णन किया
17.04.1917 को गॉधीजी को एक सम्मन प्राप्त हुआ जिसमे उन्हे 18.04.1917 को 12.30 बजे, सब डीवीजनल अधिकारी के समक्ष उपस्थित होना था। गॉधीजी को यह आभास हो रहा था कि उन्हे जेल भी जाना पड़ सकता है अतः उन्होने बाबू धरणीधर प्रसाद और बाबू रामनवमी प्रसाद को समझाया की आगे कि कार्यवाही कैसे करनी है। गॉधी जी ने उन लोगो से यह भी कहा दिया कि मुकदमा की पेशी के बाद उनकी सजा भी हो सकती है और वे जेल भी जा सकते है। इस स्थिति मे उन्होनें पूछा की आप लोग क्या किजिएगा। बाबू धरणीधर और बाबू रामनवमी प्रसाद के लिए यह प्रश्न एकाएक कठिन था । वे दोनों तो गॉधीजी के दुभाषिये की भूमिका अदा करने के लिए चम्पारण आऐ थे। बाबू धरणीधर ने गॉधीजी से कहा कि यह काम आपके जेल जाने के बाद खत्म हो जाऐगा और हम लोग बेकार हो जाऐगें। गॉधीजी ने पूछा, ’’ और इन गरीब रैयतो को यो ही छोड़ देगें ? उन लोगों ने उत्तर दिया- ’’ हम लोग और कर ही क्या सकते है, क्योकि हम समझ नही सकते कि हम लोग दूसरा कुछ क्या कर सकते हैं। मगर आप चाहे तो, जिस तरह उनकी हालत देखना और उनकी शीकायतों की जॉच करना आप जैसा चाहते है, उस तरह हम लोग से जब तक हो सकेगा, करेगें। मगर सरकार ने हम लोगो पर भी आप की तरह जिला छोड़कर चले जाने का हुक्म निकाला, तो हम लोग आपकी तरह उसकी अवज्ञा न करके चुपचाप चले जाऐगे और अपने दूसरे साथियो को सब बाते समझा-बुझा कर काम जारी रखने के लिए भेज देगें।’’ गॉधीजी उनकी बातो से खुश तो हुए परन्तु पूरा संतुष्ट नही हुए, और कहा ’’बहुत अच्छा, ऐसा ही कीजिएगा और इस सिलसिले को जहॉ तक हो सके जारी रखिएगा।’’
गॉधीजी का तरीका बिहार के लिए ही नहीं, सारे देश के लिए बिलकुल नया तरीका था। किसी ने इससे पहले इस रीति से काम किया नही था। इसका क्या नतीजा निकल सकता है, इसका अनुमान भी किसी को नही था। उन दिनो आन्दोलन में जेल जाने की स्थिति से लोग दूर रहते थे तथा अगर जेल भी हो जाए तो पैरवी अच्छी की जाती थी। भारतीय रक्षा कानून भी लागू था। उसके तहत सरकार को असीम अधिकार थे जिसमे जिला से बाहर करने का अधिकार तो था ही, वकालत करने का अधिकार भी जा सकता था। इस प्रकार के प्रश्न विचलित करने वाले थे।
जवाब तो गॉधीजी को दोनों ने दे दिया था, पर वह दोनों ही स्वयं संतुष्ट न थे। वह आपस में बातचीत करने लगे कि हम लोग जो यहॉ के रहने वाले हैं और रैयतो की मदद करने का दम भरा करते हैं, दो- चार दिनों के बाद अपने – अपने स्थान पर चलें जांऐगें, वकालत से पैसे कमाने लगेगें और चैन से आराम से दिन बिताने लगेगें और यह एक अजनबी, अनजान व्यक्ति जो गुजरात से यहॉ आया हैं – जो चम्पारण में किसी को नही जानता – जो यहॉ की भाषा भी समझ नही सकता- जिसका बिहार की समस्या से कोई लेना देना नही है- बिहार की समस्या के लिए जेल की सजा भुगतने को तैयार है । दोनां वकिलों के लिए यह अजीब बात थी। उनके मन मे यह तर्क आया कि उधर घर में और मित्रों से अपने जेल जाने की बात करना तो अलग, यह सोचा भी नही था। बाल- बच्चो का क्या होगा? सजा हो जाने के बाद अगर वकालत करने की सनद छीन ली गई तो फिर क्या होगा? इसी उधेड़ बुन मे बात करते- करते बाकी रात भी बीत गई।
उधर गॉधीजी भी सारी रात काम करते रहे। उन्होनें पहले अपना एक बयान तैयार किया जिसे उन्हे अगले दिल अदालत मे पढ़ना था। उन्होने एक-एक पत्र नीलवरों के सचिव तथा तिरहुत के आयुक्त को भी लिखा, जिसमें उनके पास अब तक जो भी जानकारी थी उसका वर्णन था तथा उन्होने रैयतो की समस्या के समाधान के लिए सुझाव भी दिए। प्रत्येक पत्र की दूसरी प्रति भी तैयार किया तथा यह आदेष भी दिया की उन पत्रो को उसी समय भेजा जाय जब उनकी गिरफ्तारी हो जाय।
दूसरे दिन सबेरे ही तैयार हो कर, गॉधीजी अपने दोनों साथियों के साथ, एक घोड़ा गाड़ी पर सवार होकर कचहरी के लिए रवाना हुए। बाबू धरणीधर प्रसाद एवं बाबू रामनवमी प्रसाद जो बात रात को विचार कर रहे थें, अभी तक उसी में लगे हुए थे। उनसे अब रहा नही गया और उन्होने गॉधीजी से कहा, ’’हमने पहले इस बारे मे कभी सोचा तो नही था, पर जब आप कही दूर से आकर इन गरीबो के लिए जेल जा रहे है तो यहॉ के रहने वाले हमलोग कैसे आपको अकेला छोड़ देना बरदाश्त कर सकेगें। अब हमने भी सोचा है कि आप जब जेल चले जाए तो हम लोग भी जेल जाऐगें’’। यह सुनते ही गॉधी जी का चेहरा खिल उठा और वह सहसा बोल उठे ’’ तब तो फतह हैं’इसके बाद गॉधी जी अपने दक्षिण अफ्रिका के अनुभवों को बताने लगे तब तक सभी कचहरी पहॅुच गये।
बाबू धरणीधर जी का जन्म सीमरी ग्राम, दलसिगसराय मे हुआ था। वह दरभंगा के एक प्रमुख वकील थे उन्होने चम्पारण सत्याग्रह मे पूरे समय गॉधी जी के साथ रहें । चम्पारण मे गॉधी जी द्वारा मधुबनी मे स्थापित विद्यालय मे भी स्वयंसेवक की भूमिका अदा की। उन्होने 1919-22 के असहयोग आन्दोलन के समय अपनी वकालत भी छोड़ दियां ।
बाबू रामनवमी प्रसाद का जन्म फहाता ग्राम, लालगंज मे हुआ था, उनके पिता का नाम मुंशी शिवराज सहाय था। चम्पारण सत्याग्रह के समय उनकी उम्र करीब 26 साल थी तथा उन्होने 1916 मे वकालत सुरू किया था। वह चम्पारण मे पूरे समय लगे रहे और 1919-22 में असहयोग आन्दोलन मे मुजफफरपुर के जिला संचालक थे।
गॉधीजी ने कचहरी जाने से पहले, अपने सामानों मे उन चीजों को, जिन्हे वह जेल में ले जा सकते थे, एक जगह करके बाकी चीजों को दूसरी जगह रख दिया। मोतिहारी मे 18.04.1917 के दिन कचहरी का हाल कुछ अलग ही था। गॉधीजी को प्रशासन द्वारा दी गई समन की बात रैयतो मे फैल गई थी और एक बड़ी भीड़ वहॉ जुट गई थी। पहले तो भीड़ गोरख प्रसाद जी के घर जुट गई थी। कचहरी में भी गॉधीजी जिधर जाते उसी ओर दल के दल लोग आ जाते थे। वह लोग वही रैयते थे, जो डर के मारे कचहरी के नजदीक निलवरों के खिलाफ नालिश करने का साहस नहीं करते थे; परन्तु उनके हित के लिए सरकारी आदेश का अवज्ञा करने वाले के मुकदमे की पेशी देखने वहॉ हजारो की तादाद मे आ जुटे थे। कचहरी मे जब गॉधी जी इजलास पर गये, तब उनके पीछे-पीछे करीब 2000 लोगों की भीड़ भी साथ थी। कमरे के अन्दर घुसने मे इतना कोलाहल और धक्कम धक्का हुआ की दरवाजो के शीशे भी टूट गए तथा पुलिस भी परेशान रह गई। इस भीड़ को देखने के बाद मजिस्ट्रेट श्री जार्ज चन्दर ने गॉधी जी से कहा कि वे मुख्तारखाने मे ठहरे, तथा वह उन्हे बुला लेगें। गॉधी जी इजलास से मुख्तारखाने मे चले गऐ ओर इसी बीच मजिस्ट्रेट ने शस्त्रधारी पुलिस बल को वहॉ बुला लिया जिससे कोर्ट की कार्यवाही मे भीड़ बाधक ना बने। गॉधी जी मुख्तारखाने मे बैठे हुऐ थे और वहॉ दर्शकों की एक बड़ी भीड़ खड़ी थी तथा सभी लोग टकटकी लगा कर गॉधी जी की ओर देख रहे थे। इनमे कितनो की ऑखो से अश्रुधारा बह रही थी।
कुछ देर बाद मजिस्ट्रेट द्वारा बुलाये जाने पर गॉधी जी मजिस्ट्रेट के सामने उपस्थित हुए।सरकारी वकिल ने समझा था कि गॉधी जी एक बड़े नामी बैरिस्टर हैं अतः लम्बी कानूनी बहस चलेगी। जैसे ही गांधी जी मजिस्ट्रेट के सामने उपस्थित हुए हाकिम ने उनसे पूछा, आपके कोई वकील हैं? गॉधी जी ने उत्तर दिया, ’’ कोई नही’’। यह सुनकर सभी लोग चकित हो गए, परन्तु सभी जानते थे कि गॉधी जी खुद कानून के अच्छे ज्ञाता है और अपना पक्ष खुद रखेगें। सरकारी वकील ने बहस शुरू करते हुए अभियोग पढ़ कर सुनाया और कहा की 144 धारा नोटिस के अनुसार मिस्टर गॉधी को 16.04.1917 को रात की गाड़ी से चम्पारण छोड़कर चले जाना चाहिए था; किन्तु वह अभी तक नही गए है, इसलिए उनपर 188 धारा के अनुसार अभियोग लगाया जाता है। मुकदमा पेश होते ही सरकारी वकील ने गवाह पेश किया और उससे इस तरह से सवाल पूछने लगे जिनके उत्तर से यह साबित हो कि गॉधी जी पर वह हुक्मनामा बाजाब्ता तामिल हुआ था, जिसकी अवज्ञा के लिए मुकदमा चल रहा था। गॉधी जी ने हाकिम से कहा यह गवाही अनावश्यक है। इसमें क्यो आपका और हमारा समय लगाया जाए। मैं कबूल करता हूँ कि यह हुक्म मुझको मिला था और मैनें उसको मानने से इन्कार कर दिया है। अगर आप इजाजत दे तो मुझे जो बयान करना है और जो मै लिखकर लाया हॅू, उसे पढ़ दू।
मजिस्ट्रेट और सरकारी वकील दोनों को पैरवी का यह तरीका बिलकुल नया लगा तथा सब आगे क्या होता है यह सोचने लगें। इसके बाद गॉधीजी ने अपने बयान को बहुत शान्त, किन्तु दृढ़ भाव से पढ़ सुनाया।
गांधीजी ने अपनी बयान में कहा कि ‘‘मेरी समझ में यह मेरे और स्थानीय अधिकारियों के बीच मतभेद का प्रष्न है। मैं इस देश में राष्ट्र-सेवा तथा मानव-सेवा करने के विचार से आया हूँ। यहाँ आकर उन रैय्यतों की सहायता करने के लिए, जिनके साथ कहा जाता है कि नीलवर साहब लोग अच्छा व्यवाहर नहीं करते, मुझसे आग्रह किया गया था। पर जब तक मैं सबसे बाते अच्छी तरह न जान लेता, तब तक रैय्यतों की कोई सहायता नहीं कर सकता था। इसलिए मैं, यदि हो सके तो, अधिकारियों और नीलवरों की सहायता से, सब बाते जानने के लिए आया हूँ। मैं किसी दूसरे उद्देश्य से यहां नहीं आया हूँ।’’……….. अंत में उन्होंने कहा कि ‘‘मैंने जो बयान दिया है वह इसलिए नहीं कि जो दंड मुझें मिलने वाला है वह कम किया जाए, बल्कि यह दिखलाने के लिए मैंने सरकारी आज्ञा की अवज्ञा इस कारण नहीं की है कि मुझे सरकार के प्रति श्रद्धा नहीं है, वरन् इस कारण की है कि मैंने उससे भी उच्चतर आज्ञा-अपनी विवके-बुद्धि की आज्ञा-का पालन करना उचित समझा।’’
गॉधीजी का बयान सुन कर सभी लोग स्तब्ध रह गये। इस तरह का बयान भारत में किसी ब्रिटिश कचहरी मे किसी ने नही दिया था ना ही किसी ने सुना था। इस पर मैजिस्ट्रेट कहा की कि ’तब तो मुझे गवाही भी लेनी पढ़ेगी और बहस भी सुननी पड़ेगी’। गॉधी जी ने बिना समय गवाये तुरन्त कहा ’’अगर ऐसा है तो लीजिए मैं कबूल करता हूँ कि मैं कसूरवार हूँ ।’’
मैजिस्ट्रेट ने गॉधीजी से कहा कि ’यदि आप अब भी जिला छोड़कर चले जाए और न आने का वादा करे तो मुकदमा उठा लिया जाएगा’? गॉधीजी ने उत्तर दिया, ’’यह हो नहीं सकता । इस समय की कौन कहे, जेल से निकलने पर भी मैं चम्पारण ही मे अपना घर बना लूगा‘‘। हाकिम इस आत्म विश्वास से अवाक रह गये और कहा कि ’‘इस विषय में कुछ विचार करने की आवश्यकता है। आप तीन बजे यहॉ आइए तो मैं हुक्म सुनाउगॉ‘‘। अदालत की कार्यवाही करीब आधे घन्टे मे समाप्त हो गई। तीन बजे से पहले गॉधीजी मजिस्ट्रेट के इजलास मे पहुच गए। मजिस्ट्रेट ने कहा की ’’मैं तारीख 21.04.1917 को हुक्म सुनाउगॉ और तब तक आप 100 रूपया की जमानत दे दीजिए‘‘। गॉधीजी ने उत्तर दिया कि उनके पास कोई जमानतदार नही हैं और न वे जमानत नही दे सकते हैं मजिस्ट्रेट के लिए फिर दुविधा आ पड़ी, अन्त मे मजिस्ट्रेट ने उनसे स्वयं का मुचलका लेकर उन्हें जाने की आज्ञा दी। गॉधीजी उसी समय डेरे पर लौट गऐ।
18.04.1917 को सुबह की गाड़ी से मी. पोलक, मौलाना मजहरूल हक, श्री ब्रज किशोर प्रसाद, श्री राजेन्द्र प्रसाद, श्री अनुग्रह नारायण सिंह तथा श्री शंभूशरण वर्मा मोतिहारी के लिए रवाना हुऐ एवं अपरान्ह तीन बजे मोतिहारी पहुँचे। उस समय तक कोर्ट की कार्यवाही समाप्त हो चुकी थी तथा गान्धीजी अपने निवास स्थान आ चुके थे। गान्धीजी सभी आगुन्तकों को देख कर विशेषकर .मौलाना मजहरूल हक तथा मि. पोलक को देखकर. विषेश प्रसन्न हुए। सभी लोगों से एक एक कर परिचय कराया गया। कोर्ट की कार्यवाही तथा मजिस्ट्रेट द्वारा आदेश को 21.04.1917 तक टालने से यह आभास होने लगा था कि मुकदमा उठा लिया जाएगा।
19.04.1917 को रैयतो की भीड़ जुटने लगी तथा उनका बयान लिये जाने लगें। इस कार्य में गान्धीजी के साथ सभी कार्यकर्ता जुटे हुए थे। बयान को जिरह करके लिखा जाता था तथा कोई विशेष तथ्य सामने आने पर उसकी जानकारी गान्धीजी को दी जाती थी। जब रैयतो का बयान लिखा जा रहा था उस समय प्रशासन ने भी मुस्तैदी दिखाई और एक दरोगा को वहॉ भेजा जो दूसरी तरफ बैठकर अपने उच्च अधिकारियों को बताने के लिए टिप्पनी तैयार कर रहे थे।
दिनांक 19.04.1917 को गान्धीजी को लग गया था कि चम्मारण में लम्बे समय तक रहना पड़ेगा तथा सहयोगियों के लिए बड़े एव अलग घर की आवश्यक्ता पड़ेगी। श्री राम दयाल प्रसाद जो मोतिहारी के साहू घराने के युवक थे । उन्होंने एक अलग मकान की व्यवस्था कर दिया।
उपराज्यपाल एवं उनके कॉन्सील को निर्णय लेने मे समय नहीं लगा तथा अगले दिन ही (19.04.1917) एक तार तिरहुत आयुक्त को भेजा गया तथा उस तार में स्थानिय प्रशासन के कार्यो पर नाराजगी जाहिर की गई थी तथा यह कहा गया था कि स्थानीय प्रशासन की कार्यवाही से उलझन पैदा होना अवश्यसमभावी था। सरकार को स्थानीय प्रशासन से ऐसी कोई घटना का वर्णन नही था जिससे यह प्रतीत होता हो की गॉधीजी किसी प्रकार से कोई फसाद पैदा करना चाहते थे। सरकार ने यह माना की ऐसी अवस्था में यह अच्छी बात होती की गॉधीजी को वहॉ चम्पारण के गॉवो में जाने दिया जाता और प्रशासनिक कर्मचारियों से भेट करने दिया जाता साथ-साथ गॉधीजी को इस बात के लिए सतर्क कर दिया जाता की यदि कोई फसाद होगा तो उसकी जबाबदेही गॉधीजी की होगी। सरकार ने यह स्पष्ट आदेश दिया की चम्पारण के जिला मजिस्ट्रेट को हिदायत दी जाए की जो हुक्म धारा 144 के तहत निर्गत किया गया था उसे वापस उठा लें।
गांधीजी के चम्पारण आने के बाद करीब 15 दिनों के बाद कृपलानी जी भी चम्पारण आ गए। कृपलानी जी गांधीजी के साथ पूरे सत्याग्रह तक रहे। उनका मुख्य कार्य गांधीजी को भीड़ से बचाना था क्योंकि जो भी रैयत अपना बयान लिखवाने आता था वह गांधीजी का ‘‘दर्शन’’ करना चाहता था। कृपलानी जी चूंकि स्थानिय भाषा नहीं समझ सकते थे इसलिए उन्होंने बयान लिखने का कार्य नहीं किया।
कृपलानी जी ने यह भी लिखा है कि चम्पारण सत्याग्रह के सबसे ज्यादा कार्य श्री राजेन्द्र प्रसाद ने किया था। जब सरकार ने जाँच बैठा दिया तब सभी रिपोर्ट श्री राजेन्द्र प्रसाद ही तैयार करते थे। आन्दोलन के दौरान कुछ सदस्य अपने व्यावसायिक कार्यों के सम्बन्ध में कुछ दिनों के लिए चम्पारण से चले जाते थे परन्तु श्री राजेन्द्र प्रसाद ने ऐसा विरले ही किया। गांधीजी एवं कृपलानी जी संध्या का भोजन सूर्यस्त से पहले कर लेते थे और दूर तक टहलने चले जाते थे, यह उन लोगों की दिन चर्या थी। इसी प्रकार टहलने के क्रम में एक दिन कृपलानी जी ने गांधीजी से इसकी चर्चा कर ही डाली कि क्यों गांधीजी इतना कार्य श्री राजेन्द्र प्रसाद को देते है, जबकि उनका स्वास्थ्य उतना ठीक नहीं रहता है। इस पर गॉंधीजी ने कहा कि वे स्वेक्षा से काम करने वालो मे हैं तथा और लोगों की तुलना में ज्यादा बुद्धिमान है। अगर आज ज्यादा काम का बोझ रहेगा तब आगे उनका ही विकास होगा।
मुकदमा का उठया जाना तथा बेतिया की यात्रा
सारे आरोप 21 अप्रैल 1917 को वापस ले लिए गए तथा यह भी आदेश था कि गांधीजी को प्रशासन मदद करें। 22.04.17 को गान्धीजी बेतिया के लिए रवाना होने वाले थे, अतः जिला मजिस्ट्रेट ने उनको यह सलाह दिया कि वे जब भी कहीं जाए तब उसकी सूचना बेतिया के सब डिविजनल ऑफिसर को दें। साथ-साथ अगर गांधीजी को कभी किसी गड़वड़ी की आशंका हो तो भी उसकी सूचना तुरन्त जिला मजिस्ट्रेट को दें।
जाते जाते जिला मजिस्ट्रेट ने गान्धीजी को इस बात के लिए भी आगाह किया कि उनके चम्पारण आने से रैयत उत्साह की स्थिति में है और गान्धी जी को इस बात के लिए सावधान रहना चाहिए क्योंकि शान्ति भंग हाने की पूरी सम्भावना थी। बेतिया पहुँचने के अगले दिन 23.04.17 को गांधीजी बेतिया के सब डिविजनल अधिकारी, मि. डब्ल्यु. एच. निविस तथा बेतिया राज के मैनेजर मि. जे.टी. विटी से मिले।
बेतिया में 24.04.1917 को गांधीजी एवं श्री ब्रजकिशोर प्रसाद लौकरिया गांव गए। वहां अनेक लोगों ने अपनी व्यथा बताई। गांधीजी ने भी विस्तार से लोगों से, उनको मिलने वाली मजदूरी के विषय में जानकारी हांसिल किया। श्री ब्रजकिशोर प्रसाद रैयतों से प्रत्येक मुद्दा पर विस्तार से पूछताछ करते थे और उन लोगों का व्यान लिखते थे । उस स्थान पर बेतिया के सब डिविजनल अधिकारी लेविस भी आ गए। और सारी कार्यवाही को देखते रहे और बाद में उन्हें सब कुछ ठीक लगा वे चले गए। वहां सबडिवीजनल अधिकारियों के सामने भी रैयतों ने निडर होकर अपनी बात रखी। उस दिन कार्य समाप्त होने पर गांधीजी श्री खेंधर प्रसाद राय नाम के एक गृहस्थ के घर रूक गए। श्री खेंधर प्रसाद राय का गाँव मौजा लौकरिया, बेतिया राज के जमिन्दारी के अधीन आता था । वे एक प्रतिष्ठित्त किसान थे । उनका नील के फैक्ट्रीयों से लम्बा विवाद था। इस विवाद के कारण उनको शक्तिशाली यूरोपियन नीलवरों से दुश्मनी लेनी पड़ी । इसके एवंज में उन्हें बहुत कटु अनभव का सामना करना पड़ा। चम्पारण सत्याग्रह में उन्होंने सक्रिय भूमिका अपनाई तथा वे चम्पारण एग्रेरियन जाच कमिति (1917) के समक्ष रैयतों के तरफ से एक प्रमुख गवाह के रूप में उपस्थित हुए, अगले दिन लौकरीया से सभी लोग पैदल ही बेतिया लौट गए तथा चलने से गांधीजी के पैरों में सुजन आ गई थी। अतः पैर गरम पानी से धोए गए।
मोतिहारी में जो भी बयान लिखे जाते थे उसे प्रतिदिन रात की गाड़ी से एक सदस्य गांधीजी के पास बेतिया ले जाता था।
26.04.17 को गॉन्धीजी श्री रामनवमी प्रसाद के साथ कुड़िया कोठी देहात में सिंधा छपरा गांव में गऐ। यह गाव बेतिया से थोड़ी दूरी पर थां उनलोगों के साथ पुलिस कर्मचारी भी थे। गांधीजी ने गांव को घूम-घूम कर देखा। वहाँ ज्यदातर घरों के चारों तरफ नील की खेती की गई थी। यह दृश्य दुखी करने वाला था। नीलवर घर की करीब की जमीन में इसलिए नील की खेती करवाते थे जिससे नील की फसल की देख-रेख ठीक से हो सके।
श्री राजकुमार शुक्ल का गांव भी बेतिया से करीब था वहाँ अभी तक गांधी जी की यात्रा नहीं हो पाई थी। शुक्लाजी का गांव बेलवा कोठी देहात के इलाकों में आता था तथा वहां के नील फैक्ट्री के मैनेजर श्री अमोन थे। 27.04.1917 को गांधीजी अपने सहयोगी श्री ब्रजकिशोर प्रसाद, रामनवमी प्रसाद तथा श्री राजकुमार शुक्ल के साथ निकल पड़े। रास्ते में श्री विंध्यावासिनी प्रसाद, जो गोरखपुर से गांधीजी के आंदोलन में सहयोग देने आ रहे थे मिल गए एवं वे भी उस दल के साथ चल दिए। बेतिया से सभी लोग पहले नरकटियागंज स्टेशन गए तथा वहां से सभी लोग पैदल ही मुरलिवरवा (श्री राजकुमार शुक्ल का गांव) के लिए रवाना हो गए। रास्ते में शिकारपुर के दीवान जी के तरफ से यह आग्रह हुआ की गांधीजी उनके घर पर पधारें एवं जलपान करें। वहाँ से सभी भोजन ग्रहण कर तुरन्त चल पड़े। उन दिनों बैसाख का महीना था तथा धूप एवं पश्चिम की गर्म हवा का प्रभाव रहता था। इस सबके बावजूद पूरा दल 10 बजे के करीब मुरलीबरवा पहुँच गया । श्री राजकुमार शुक्ल ने अपना घर दिखाया जिसे गतमाह कोटी वालों ने लूट लिया था। घर पूरा उजड़ा हुआ था। धान रखने वाली कोठियों उलटी पड़ी थी। केले के पेड़ उजड़े हुए थे। फसल लगी खेलों को मवेशियों से चरवा दिया गया था यह इसलिए स्पष्ट था क्योंकि खेतों में टुटी डांटे लगी हुई थी। वहा उपस्थित अनेक लोगों के बयान लिखे गए तथा सैकड़ों लोगों ने लूट एवं खेतों को बर्बाद करने की बात स्वीकार किया उनमे कुछ ऐसे भी थे, जिन्होंने यह स्वीकार किया की श्री राजकुमार शुक्ल के खेतों को चरवाने में उनकी मवेशियों का इस्तमाल किया गया था। वहां से गांधीजी बेलवा कोठी के मैनेजर मि. ए.सी. अमोन से मिले। चूंकि वहां से उस दिन बेतिया लौटना सम्भव नहीं था अतः सभी लोग उस दिन अमोलवा गांव के एक प्रतिष्ठित किसान श्री संत राउत के मकान पर ठहरें। श्री संत राउत एक मध्यमवर्गीय किसान थे तथा वे 12 वर्षों तक बेलिवा फैक्ट्री में गुमास्ता के रूप में काम कर चूके थे। नीलवरों द्वारा, रैयतों से अनेक प्रकार से जो पैसा लिया जाता था उसका उन्होंने विरोध किया तथा 1915 के बाद होने वाले आन्दोलन में उनकी सक्रिय भूमिका थी। वे चम्पारण एग्रीरियन जाच कमैटी के समक्ष रैयतों की तरफ से एक गवाह के रूप में उपस्थित हुए थे। अन्य गवाह थे श्री राजकुमार शुक्ल ।
नीलवरों में बड़ी खलवली थी तथा वे लोग, गांधीजी द्वारा हो रही जाँच के दौरान जमा हो रहे तथ्यों से घबड़ा गए थे। वे चाहते थे कि गांधीजी के द्वारा होने वाला जाँच को तुरन्त रोका जाए और निपक्ष जाँच कराई जाए। नीलवरों को अन्दाजा था कि गांधी जी रैयतों के हित के लिए आवश्यक क्षमता रखते हैं तथा नीलवर उनकी संगठन शक्ति से घबड़ाते थें ।
प्रशासन को यह लगने लगा था कि रैयतों के हित के लिए गांधी जी किसी भी हद तक जा सकते थे, चाहे कितनी बड़ी कुर्बानी क्यों न देनी पड़े। यह भी समझ में आ गया था कि गांधी जी चम्पारण से अपने आप को उस समय तक अलग नहीं कर सकते जब तक रैयतों के हित में आमूलभूत परिवर्तन नहीं किया जाता। परन्तु प्रशासन यह मानता था कि कठिन समस्याओं के हल निकालने में गांधी जी का सहयोग सदा सकारात्मक था।
रैयतो को उत्साहित देख चम्पारण के नीलवरों में भी अत्यधिक खलवली थी उनको लगता था कि वे चम्पारण के अन्दरूनी इलाकों में रहते हैं अतः अगर रैयत ने अपना आपा खो दिया तो उनको खतरा था। जो रैयत नीलवरों के खिलाफ बोलने से डरना था, वह उनके सामने तथा सरकारी अधिकारी के मुह पर नीलवरों के खिलाफ बयान देने को तैयार था। गांधीजी को चम्पारण में कुछ लोग ही जानते थे और मात्र एक हफ्ते में नीलवरों ने देखा कि कैसे वे रैयतों के दिल में छा गए थे। नीलवरों को यह विश्मित करने वाला था कि हजारो रैयत, गान्धीजी को आकर मिलते थे तथा उनके पैर छुना चाहते थे।
बेतिया प्रवास के दौरान अन्य प्रमुख सहयोगियों मे हरबंस सहाय (ग्राम, बरारीया, थाना, गोबिन्दगंज) एवं पीर मुहम्मद भी थे। वे दोनो बेतिया राज उच्च विद्यालय के शिक्षक थे तथा उन दोनो को प्रशासन ने बरखास्त कर दिया था। प्रशासन के लिये वे दोनों आंख की किरकिरी थे, विषेशकर जिला पुलिस अधिक्षक, सी. एम. मौरसम के लिए ।
गांधीजी के द्वारा हो रही जांच से नीलवरों एंव प्रशासन में अत्यधिक धबराहट थी अतः गांधीजी की मुलाकात मि. मौडे से 10 मई को हुई जो रेवेन्यू मेम्बर थे । इसके उपरान्त गांधीजी ने एक रिपोर्ट सरकार को सौपी । गांधीजी के विचार जानने के पश्यात सरकार एंम नीलवर समझ गऐ कि जब तक कोई स्थायी समाधान नहीं होगा गांधीजी अपने सहयोगीयों के साथ चम्पारण से जाने वाले नहीं हैं ।
इसी बीच 18 मई को रात को दुसरी अगलग्गी की घटना हुई। घोकराहा, लोहरिया फैक्ट्री का हिस्सा था तथा फैक्ट्री से कुछ दूरी पर था। पहली अगलग्गी की धटना 1 मई को ओलहा में हुई थी । दिलचस्प बात यह है कि चाहे ओलहा हो या धोकराहा दोनों स्थान मुख्य फैक्ट्री से अलग अवस्थित था; दोनों स्थानों में कोई मैनेजर नहीं रहता था; दोनों स्थानों को स्थानीय कर्मचारी देखभाल करते थे । दोनों घटनाओं को प्रशासन ने ‘‘दूर्भावना से आग लगाना’’ (incendiarism) के वर्ग में माना। नीलवरों में खलवली का मुख्य कारण था कि उनकी कमाई कम होती जारही थी और गांधीजी के आने से उस कमाई को और घटने के सम्भावना थी। नीलवरों को इस प्रकार रूपया कमाने की आदत पिछले सौ वर्षों से लगी थी।
गांधीजी द्वारा एक रिपोर्ट सौपने के पश्चात वाइसराय ने उप राज्यपाल को 22 मई को एक कमिशन बैठाने की सलाह दी, परन्तु राज्य सरकार ने 10 जून को जाकर एक औपचारिक आदेश निकाला।
इस अवधि के मध्य में घटित घटना भी दिलचस्प हैं क्योकि चम्पारण के स्थानिय अधिकारी और राज्य सरकार के अधिकारी इस अवधि में इस कार्य में लगे रहे कि यदि भारतीय रक्षा कानून के तहत गॉधीजी पर कार्यवाही होगी तब उसे कैसे निपटा जाऐगा। केन्द्र सरकार एवं स्थानिय अधिकारियों ने यह विचार करना आरम्भ कर दिया की अगर समस्या गम्भीर होगी तो स्थानीय सरकार को सेना की मदद लेनी पड़ सकती थी।
4 जून को गांधीजी उप राज्यपाल सर ऐडवर्ड गेट से रांची में मिले । 10 जून को सरकार नें चम्पारण एग्रेरियन कमीटी का गठन किया तथा उसमें गांधीजी ने रैयतों का प्रतिनिधित्व किया। कमिटी ने जुलाई एंव अगस्त महिने में रांची, बेतिया और मोतिहारी में बैठके कि और अपनी रिपोर्ट 3 अक्टुबर 1917 सौप दी । अन्तोगत्वा 4 मार्च 1918 को चम्पारण एग्रेरियन बिल पास हुआ। इस बिल को वायसरॉय की मन्जूरी मिलने के साथ-साथ गांधीजी नें रैयतां पर सौ वषों से ज्यादा समय से लगे नील के खूनी दाग को बिना किसी हिंसा के हमेशा के लिए घो ड़ाला।
8 मई 1918 को ब्रिटिश हाउस औफ कौमंस में एक प्रश्न पुछा गया जिसका मुख्य केन्द्र तिनकठिया प्रथा के समाप्ति के लेकर था ।
चम्पारण सत्याग्रह के दौरान कोई घरना, प्रर्दशन एंव सभा का आयोजन नही किया गया, नहीं कोई गिरफ्तारी हुई । सिर्फ कृपलानीजी को दो सप्ताह कारावास में रहना पड़ा था, जिसका सत्याग्रह से कोई लेना देना नही था। कृपलानीजी घुड़सवारी के सौकिन थे तथा एक दिन घुडसवारी करनें के क्रम में घोडा अधिक अछलनें लगा और वे खुद गीरगऐ एंव जख्मी हो गये । घोडे़ कि उछलकुद के कारण पास से गुजर रही एक बुढी महिला गीर गई परन्तु उसे कोई जख्म नही लगा था । संयोगवश उसी समय जिला पुलिस अधिक्षक उधर से गुजर रहे थे । उन्होनें पुलिस को असावधानी से घुड़सवारी करने के आरोप में मुकदमा दायर करने का आदेश दिया । कृपलानीजी अदालत में उपस्थित हुऐ तथा मजिस्ट्रेट से आग्रह किया कि वह घटना एक दुर्घटना थी जिसमें वे खुद घायल हुए थे । उनकी यह दलील नही मानी गई एंव उन्हें 40 रूपये का जुर्माना या दो सप्ताह के कारावास की सजा हुई । गांघीजी ने उन्हें 40 रूपऐ न देकर कारावास जाने की सलाह दीया ।
ब्रिटिश सरकार नियम कानून बनाती थी तथा जनता के उपर सख्ती से लागू भी करती थी ।परन्तु, जब यूरोपियन लोगो पर कानून को लागू करने की बात आती थी तो अनेक बहाने ढुढें जाते थे । रैयतों पर जोर जबरदस्ती, अपहरण, मार-पीट की घटना आम बात थी और रैयतों का जीवन 1916 में भी उतना ही संघर्षपूर्ण था जितना 1831 और 1860 में था।
गांधीजी नें चंपारणमें ब्रिटिश अधिकारीयों को आइना दिखाया तथा उनलोंगो को उन्हीं की गलतियों के लिए अपमानित महसुस कराया और यह अनेको बार हुआ ।
प्रस्तुतकर्ता –
उदय कुमार श्रीवास्तव,
Udayshrivastava55@gmail.com
9871164360
https://www.facebook.com/Champaran-Satyagrah-1848324178762078/

 

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