
हकीकत-अजय अमिताभ सुमन
PC:Pixabay
रोज उठकर सबेरे नोट की तलाश में ,
चलना पड़ता है मीलों पेट की खुराक में.
सच का दामन पकड़ के घर से निकालता है जो,
झूठ की परिभाषाओं से गश खा जाता है वो.
बन गयी बाज़ार दुनिया,बिक रहा सामान है,
दिख रहा जो जितना ऊँचा उतना बेईमान है.
औरों की बातें है झूठी औरों की बातो में खोट,
मिलने पे सड़क पे ना छोड़े पाँच का भी एक नोट.
तो डोलते नियत जगत में डोलता ईमान है,
और भी डुलाने को मिल रहे सामान है.
औरतें बन ठन चली बाजार सजाए हुए ,
जिस्म पे पोशाक तंग है आग दहकाए हुए.
तो तन बदन में आग लेके चल रहा है आदमी,
ख्वाहिशों की राख़ में भी जल रहा है आदमी.
खुद की आदतों से अक्सर सच हीं में लाचार है,
आदमी का आदमी होना बड़ा दुश्वार है.
अजय अमिताभ सुमन
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