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साहित्य

जीवन के उलझन

जीवन के उलझन

साहित्य
  उलझन एक अजीब है , जब उलझे संसार | प्रेम में उलझन , बनती बात , प्रेम  उलझकर बना ओ प्यार , इतना सुन्दर ये संसार || प्रेम रूपी जब दीप जला तो , खुशियों से खिलता संसार | खुशिया बहुत निराली है , जब  उलझन बनता प्यार ही प्यार || जब उलझन होता झगड़ो का , तब दुनिया बनती खड़हर सा | इश दुनियाँ (परिवार) में दीप न जलता , तो लगता है आया काल | काल रूपी जब दीप जला तो , खुशियाँ बनती है जौजाल || जब खुशियाँ उठती है ऊपर , तो आते है काल का छाँव | इश छाँव में जल जाते है , ऊपर -ऊपर के ही पाँव || तो लगे कबारन(उजागर)  उन मुर्दो(बात)  को , जो खुशिओं से दबे पड़े थे | जब कबरन को मुर्दे लागे, तो लागे संसार की दुरी भागे | छांट - छूँट कर , बाट बूट कर , अलगा हुवा यही संसार |- 2 | एक ही खून के दो जन्मे थे , लेकिन बात नहीं बनते थे | एक लगा कुछ बोलन लागे , दूसरा बोलन जोर से लागे || इशी बीच में हो गई
मच्छर दाता – मलेरिया के बिधाता

मच्छर दाता – मलेरिया के बिधाता

साहित्य, हिन्दी साहित्य
                                                                                                                                                                                       हे रातों के मच्छर दाता,            तू ही मलेरिया का है बिधाता | तू चाहें तो रात बिता दे,       तू चाहें तो रात भर जगा दें | तेरी दया जहाँ जाती है ,       वहां कृपया रहता है तुम्हारा | तेरा घर तो नाला – नाली       नदी, तालाब, और गंदे पानी | तू तो दिन वही बिताता,       रात को मेरे घर में आता | ऊँ ऊँ कर बाते तू करता,       तू तो सबसे है कुछ कहता | तेरी बाते बहुत निराली, ऊ ऊ वाली बाते प्यारी |       तेरी बाते जो ना सुनता उसको तू देता है दण्ड | हे रातों के मच्छर दाता, तू ही मलेरिया का है बिधाता |                                                        - Mukesh Chakarwarti  Follow on twitter
बोल रे दिल्ली…… कुन्दन सिंह

बोल रे दिल्ली…… कुन्दन सिंह

साहित्य, हिन्दी साहित्य
            बोल रे दिल्ली बोल तू क्या क्या कहती है। बोल रे दिल्ली बोल तू क्या क्या कहती है।   यमुना तेरी सूख गई सब किले तुम्हारे टूट रहे, तेरे दिल में रहकर हम तेरी छाती को कूट रहे। घुटता है दम रोज तेरा, धुआँ धुआँ है साख तेरी, अस्मत लुटती बाजारों में, बंद क्यूँ है आँख तेरी। है प्राचीन विरासत तेरी अब नालों में बहती है। बोल रे दिल्ली बोल तू क्या क्या कहती है।   ह्रदय है तू माँ भारती का, पर्वत सा इतिहास तेरा, रावण तो मरता नहीं कब ख़त्म होगा बनवास तेरा। लोग शहंशाह बन जाते हैं गोदी में तेरी आकर, फिर दासी बन जाती है तू चोट कलेजे पर खाकर। आखिर कैसा मोह है तुझको, जो ये वेदना सहती है। बोल रे दिल्ली बोल तू क्या क्या कहती है।   कृष्ण जो बन कर आये थे अब वही तेरा हर चीर रहे, रक्त पिपास