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जिंदगी के पड़ाव

जिंदगी के पड़ाव

कविता, मुख्य, हिन्दी साहित्य
  जिंदगी के पड़ाव पर हमनें चलते देखा , हमनें रुकते देखा | हमनें थकते देखा, थक कर रुक जाते और मुरझाते देखा, धरा के इस पञ्च तत्व में, विलय शून्य बन जाते देखा जिंदगी के पड़ाव पर हमनें चलते देखा , हमनें रुकते देखा || थक गए चलते-चलते, मंजिल का विश्राम नहीं, ऐसे मानों राह बड़ा, पथ का कोई ज्ञान नहीं | खोज रहे उस पावक पथ को, निज पाओं से चलते-चलते, जब थक कर चूर हुए अरमान, तब आसमान की ओर भी देखा, उजियारे भी चले गए, अब अंधकार के बादल बैठे, उन्नत मस्तक अरमानों का, अपमानों से सम्मानों तक, कभी मिलते देखा, कभी लड़ते देखा, कभी चलते देखा, कभी रुकते दखा, जिंदगी के पड़ाव पर हमनें चलते देखा , हमनें रुकते देखा || कभी पावों के निचे अंगारें, कभी प्रलय की घोर घटायें, कभी अपनों के कल कहार में, घोर घृणा और दीर्घ हार में , नफरत के इस अंगार में हमनें सुलगते देखा, हमनें धधकते देखा, नफरत के इस