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मर्दों के संग चलना है

कविता, हिन्दी साहित्य
चाँद की तरह निकलना है और सूरज जैसे ढलना है। और  बराबर  हो  तुमको  मर्दों   के  संग  चलना  है। जरा-जरा सी बात पे क्यूँ रो पड़ती हो तुम अँधेरे से अब भी क्यूँ  इतना डरती हो तुम काली नजरों से सबकी बचना  पड़ता है तुमको फिर जाने क्यों इतना शृंगार सुघर करती हो तुम घर से बाहर जब निकलो साथ किसी के निकलना है। और  बराबर   हो   तुमको  मर्दों  के  संग  चलना  है। कोख में अपनी  रख जिसको  तुम दुनिया में लाती हो निज औलाद को भी तुम अपना नाम कहाँ दे पाती हो छोड़ के इस घर को तुमको उस घर में जाना पड़ता है, बेटी कभी, कभी  बीवी, फिर  तुम  माँ  बन  जाती हो हो अनुकूल समय के ही तुमको हर रोज बदलना है। और  बराबर  हो  तुमको  मर्दों  के  संग  चलना&n

मर्दों के संग चलना है

कविता, मुख्य
चाँद की तरह निकलना है और सूरज जैसे ढलना है। और  बराबर हो तुमको मर्दों  के  संग  चलना  है। जरा-जरा सी बात पे क्यूँ रो पड़ती हो तुम अँधेरे से अब भी क्यूँ  इतना डरती हो तुम काली नजरों से सबकी बचना  पड़ता है तुमको फिर जाने क्यों इतना शृंगार सुघर करती हो तुम घर से बाहर जब निकलो साथ किसी के निकलना है। और  बराबर  हो  तुमको मर्दों के  संग चलना  है। कोख में अपनी  रख जिसको  तुम दुनिया में लाती हो निज औलाद को भी तुम अपना नाम कहाँ दे पाती हो छोड़ के इस घर को तुमको उस घर में जाना पड़ता है, बेटी कभी, कभी  बीवी, फिर तुम माँ बन  जाती हो हो अनुकूल समय के ही तुमको हर रोज बदलना है। और  बराबर हो तुमको मर्दों के  संग  चलना  है। जाने किन नजरों में तुम सम्मान ढूँढती फिरती हो