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चम्पारण सत्याग्रह के पहले १०० साल पे आइये जाने सुबह से शाम तक कैसी होती थी राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की दिनचर्या

चम्पारण में गान्धीजी का निवास एवं दिनचर्या






दिनांक 19.04.1917 को गान्धीजी को लग गया था कि चम्पारण में लम्बे समय तक रहना पड़ेगा तथा सहयोगियों के लिए बड़े एव अलग घर की आवश्यकता पड़ेगी। श्री राम दयाल प्रसाद जो मोतिहारी के साहू घराने के युवक थे । उन्होंने एक अलग मकान की व्यवस्था कर दिया। उसी समय गान्धीजी ने सबोको आदेश दिया कि नये निवास स्थान में चलना है। मकान की सफाई बगैरह होते-होते संध्या हो गई तथा सभी लोगों ने सोचा कि आज रात में नई जगह न जाकर अगले दिन सुबह चले चलेंगे और सभी सहयोगियों ने न जाने का फैसला किया। रात में करीब नौ बजे के बाद गान्धीजी ने जानना चाहा कि नए मकान में कब चलना है तब उन्हें बताया गया कि सब की राय है कि कल सबेरे चलेंगे। सभी सहयोगियों का यह विचार गान्धीजी को पसन्द नहीं आया। उन्होंने सबो से कहा कि ‘‘जब एक बार निश्चय कर लिया गया कि इस काम को करना है तो उसको कर ही डालना चाहिए, इस तरह निश्चय बदलना अच्छा नहीं हैं, और सफाई की क्या ऐसी बात है। क्या हम सब लोग अपने रहने के स्थान को भी खुद साफ नहीं कर सकते? अगर सफाई नहीं भी हुई तो हम लोगों को खुद कर लेनी चाहिए।’’



अपने नये घर में जाने के घटना क्रम का वर्णन श्री राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी पुस्तक ‘‘बापू के कदमों में’’ इस प्रकार किया है:- ‘‘गाँधीजी का सामान तो बहुत मुक्तसर था। छोटे से विस्तर में ही सब कपड़े बँधे रहते थे। वह विस्तर सिर्फ सोने के वक्त ही खुलता और सबेरे उठकर उसे खुब करीने से बाँधकर वह रख देते। इस तरह वह हमेशा बँधा तैयार ही रहता। दूसरा एक टिन का डिब्बा था। बाते अपनी पूरी करते करते वे उठ खड़े हुए और अपना विस्तर तथा डिब्बा लेकर यह कहते हुए रवाना हो गए कि मैं तो जाता हूँ, वहीं सोऊँगा। हम लोग बहुत घबरा गए और पीछे-पीछे दौड़कर उनके हाथ से किसी ने विस्तर लिया और किसी ने डिब्बा। हम लोग कहने लगे, हम लोग भी चलते हैं। गान्धीजी थोड़ी देर ठहर गए। हम लोगों के समान में से जो रात के लिए जरूरी था, उसे अलग करके हम लोग भी चले गए। वहाँ पहुँचते ही गान्धीजी ने देखा, बरामदे में एक तरफ झाडू पड़ी है। उसे झट उन्होंने उठा लिया और एक तरफ से बुहारना शुरू कर दिया। यह देखकर हम लोग अवाक् रह गए। खैर, किसी तरह उनके हाथ से झाडू ले ली गई। जहाँ-तहाँ हम लोगों के भी विस्तर पड़ गए। अंत में हम लोगों ने यह कैफियत पेश करने की कोशिश की कि हम लोगों ने सोचा था, आज रात न आकर अगर कल सवेरे इस मकान में आते तो इसमें कोई बात बिगड़ती नहीं इसलिए जब संध्या तक हम यहाँ नहीं आ सके तब हमने आज आने का इरादा छोड़ ही दिया था। इस पर उन्होंने फिर सब बातें समझाकर हमारे दिल पर इस बात को खूब जमा दिया कि जब एक बार कोइ निश्चय कर लिया जाए तो उसे छोड़ना नहीं चाहिए। यह एक तिसरा वस्तु पाठ था। अपने हाथ अपने गठरी उठाना, आते ही झाउू लगाना हम सबके लिए बिलकुल एक नई बात थी, क्योंकि हमारा जीवन उस दिन तक दूसरे ही प्रकार से कटा था। हमने या हमारी श्रेणी के लोगों में किसी ने, कम से कम बिहार में इस तरह के काम कभी नहीं किए थे। पर इस प्रकार के वस्तुपाठ तो दिन प्रति-दिन और भी मिले।

हमारी दिनचर्या बहुत ही कड़ी और परिश्रम की रहती। महात्माजी सबेसे बहुत जल्द उठ जाते। उन दिनों सामूहिक प्रार्थना नहीं करते थे। शायद वे अकेले कर लिया करते थे। उनका भोजन, शुरू में कुछ दिनों तक, चिनिया-बादाम (मूँगफली) और खजूर था। जब आम मिलने लगा तब आम भी खा लेते थे। पर अभी कुछ दिनों तक अन्न उन्होंने नहीं खाया अपना सब काम अपने ही हाथों कर लेते। स्वानादि के बाद अपने कपड़ें भी साफ कर लेते। सबेरे से शाम तक लिखते-पढ़ते और रैयतों से मिलते-जुलते रहते थे। जब कभी जरूरत होती, सरकारी कर्मचारियों से मिलते पर अभी निलवारों से सीधा संपर्क नहीं हुआ था। हम लोग भी खूब सबेरे उठकर स्नानादि और कुछ जलपान करके, सुर्योदय होते-होते अलग-अलग एक-एक चढाई और कलम-कागज-दवात लेकर बैठ जाते और बयान लिखने लग जाते थे। इस तरह करीब ग्यारह-साढे-ग्यारह तक बयान लिखते और फिर भोजन इत्यादि करके थोड़ा आराम के बाद एक बजे से फिर बैठ जाते और संध्या तक लिखते रहते। रैयतों की इतनी भीड़ होने लगी की हम जितने थे बयान लिखने का काम पूरा नहीं कर सकते थे। इसलिए चंद दिनों के अन्दर ही दूसरे और कई मित्र आगऐ और उसी तरह काम में जुट गए। मेरा अनुमान है कि हम दस-बारह आदमी इस तरह अपनी दुकान लगा लेते और दिन भर लिखत-लिखते थक जाते, तो भी जितने रैयत आए रहते, सबका बयान पूरा नहीं हो पाता और उनको दूसरे दिन तक के लिए ठहरना पड़ जाता। शाम को उठने के पहले हम लोग बाकी रैयतों के नाम लिख लेते थे और दूसरे दिन उनके बयान लिख लेने के बाद ही नए आनेवालों के बयान लिखते। कभी कभी एसा भी हो जाता कि रैयतों को एक दिन में अधिक इंतजार करना पड़ता”।



मोतिहारी में जब सब लोग अलग घर में चले गए तब वहाँ अपना इंतजाम करना पड़ा तो यह प्रश्न उठा की ‘‘जाति-पाति’’ की बजह से ब्राह्मण रसोईया खोजने की जरूरत पड़ी इस संदर्भ में श्री राजेन्द्र प्रसाद की किताब ‘‘बापू के कदमों में’’ सुन्दर वर्णन है:-

‘‘जाति-पाँति की वजह से अब ब्राम्हण रसोइया खोजने की जरूरत पड़ी। महात्माजी ने कहा कि इस तरह जाति-पाँति रखने से काम में बाधा पड़ेगी और हममें से हर एक के लिए अलग-अलग चूल्हे जलाने पड़ेगें तथा खर्च भी पड़ेगा। सार्वजनिक काम इस प्रकार से नहीं चल सकता, हमको इसे छोड़ना पड़ेगा; आखिर जब हम सब एक ही काम मे लगे हुए है तब हम सबकी एक ही जाति क्यों न समझी जाए? इस तरह समझा कर उन्होनें मोतिहारी से जाति-पाँति तुड़वा दी। हम में एक आदमी ने भोजन बनाया और हम सबने मिलकर खाया । इस तरह पहले पहल किसी दूसरी जाति के आदमी की बनाई हुई कच्ची रसोई मैनें खाई।

चंद दिनो के बाद उनको पता लगा कि हम लोगों के साथ कई नौकर हैं, पहले तो बहुत से लोग दिन-रात घेरे रहते थे और सब कुछ-न-कुछ सेवा करने पर तैयार रहा करते थें । इस तरह, कौन नौकर है और कौन किसी गाँव का आया स्ंवयसेवक है, इसका पता नहीं चलता था । पर मेरे साथ एक स्थूलकाय और देखने में प्रतिष्ठित रैयत जैसा नौकर था। वह मोतिहारी में ही था और जब मैं बेतिया पहुँचा तब वहाँ भी साथ था। तब महात्माजी को ख्यान आया कि यह कौन आदमी है जो मोतिहारी में भी और बेतिया में भी इतनी सेवा करता रहता है । उनका ख्याल था कि वह भी कोई स्ंवयसेवक है। पर जब उनको मालूम हुआ कि केवल वही नहीं, बल्कि और भी उस प्रकार के सेवक थे जो स्ंवयसेवक नहीं थें, तब उन्होनें हम लोगों से कहा कि इस तरह नौकर रख कर अपना-अपना काम कराना किसी भी देश- सेवक के लिए ठी नहीं है और देश-सेवक को तो इन सब बातों में स्वावलंबी होना ही चाहिए। नतीजा यह हुआ कि एक-एक करके सब नौकर हटा दिए गए, केवल एक आदमी रखा गया, जो चैका-बरतन करता था । हम लोगों ने भी अपने सब काम खुद कर लेना आहिस्ता- आहिस्ता सीख लिया। अपना काम कर लेना कुछ इतना कठिन नही होता जितना हम पहले समझते थे। हमने अपने लिए यह नियम बना लिया कि सवेरे उठते ही अपने बिस्तर लपेट कर एक नियत स्थान पर रख दें। इसके बाद नित्य-क्रिया व स्नानादि करके अपने कपड़े धो लें और अपने लिए पानी भी भरकर रख लें, जिसमें जब जरूरत पड़े तब पानी मौजूद मिले। पानी भरने का काम कम करना पड़ता; क्योकिं कोई-न-कोई रैयत मौजूद रहता और वह दौड़कर हमारे हाथों से घड़ा ले लेता और पानी भर देता। इस तरह स्नानादि का काम भी, जिसमे ज्यादा पानी लगता हैं, आसानी से हो जाता; क्योकि बिहार की प्रथा के अनुसार हम कुए के नजदीक ही खुले मैदान में स्नान कर लिया करते।
जब श्रीमती कस्तूरबा वहाँ आ गई तब रसोई बनाने का काम गांधीजी ने उनके ही सुपुर्द कर दिया । हम लोगों को यह अच्छा नही लगा; क्योंकि हम लोगों की संख्या काफी थी और उनसे इतना काम लेना ठीक नहीं मालूम पड़ता था। पर गांधीजी ने नही माना और कहा कि उनको आदत है; इसमें कोई हर्ज नही है – हाँ, उनको आप लोग चाहे तो मदद दे सकते है। कृपलानीजी विशेष करके उनकी मदद करते। तब बड़े बरतनों में, ज्यादा आदमी होने की वजह से, अधिक चावल राँधना पड़ता तब वह बरतन ‘बा’ के लिए भारी पड़ जाता था, तो हम लोगों मे से कोई जाकर उसे उतार दिया करता। ‘‘बा‘’ के आ जाने के बाद गांधीजी अन्न खाने लगे और जब हम सब एक साथ खाने बैठ जाते तो महात्माजी स्वयं अपने हाथों सबको खाना परस देते। भोजन के बाद हम सब अपन-अपने बरतन धो लेते और अपने-अपने पास रख लेते। केवल बटलोई इत्यादि माँजने-धोने के लिए एक नौकर था। संध्या के समय पाँच बजे और दिन मे प्रातः गयारह बजे भोजन हुआ करता और सवेरे हम लोग कुछ जलपान किया करते थे। भोजन के बाद संध्या को हम लोग गांधीजी के साथ टहला करते और इसके लिए कुछ दूर तक चले जाते। टहलकर लौट आने के बाद बयान नहीं लिखा जाता था। हम काम करनेवालों के साथ बैठकर गांधीजी दिन भर के हुए काम पर विचार-विनिमय कर लेते थे; आगे का कार्यक्रम भी सोचकर ठीक कर लेते थे ‘‘।

‘‘जलपान’’ शब्द का शब्दिक अर्थ है ‘‘पानी पिना’’ परन्तु बिहार में कुछ खाकर पानी पीने की प्रथा है अतः जब कुछ खाया जाता है उसे ‘‘जलपान’’ कहा जाता है यह ‘‘जलपान’’ शब्द सभी स्वंयसेवको एवं गांधीजी के लिए एक विनोद पूर्ण माहौल बनाता था। इस ‘‘जल पान’’ का वर्णन श्री राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी पुस्तक ‘‘बापू के कदमों में’’, इस प्रकार किया हैः-




‘‘जलपान” शब्द तो महात्माजी के लिए एक बड़ा मजाक का शब्द होगया था। शब्द का अर्थ तो है ‘पानी पीना’ ; पर बिहार में कुछ खा कर पानी पीते हैं और जो कुछ खाया जाता है उसी को ‘जलपान’ कहते हैं। इसलिए ‘ जलपान’ का अर्थ कुछ खाने का है, जिसकी मात्रा खानेवाले और खिलानेवाले की रूचि पर निर्भर करती है। वह इसलिए अक्सर मजाक किया करते थें कि पानी पीने के नाम पर आप लोग इतना खा लिया करते है और, यह मजाक अंत तक चलता रहा – जब कभी हमारे जैसे किसी बिहारी के भोजन करने की बात आती तब महात्माजी ‘जलपान’ शब्द का व्यवहार करके हॅसते‘‘।

गांधीजी के चम्पारण आने के बाद करीब 15 दिनों के बाद कृपलानी जी भी चम्पारण आ गए। कृष्णलानी जी ने इतिहास एवं अर्थशास्त्र में एम.ए. तक पढ़ाई किया था तथा 1912-17 तक वे जी.बी.बी. कालेज मुजफ्फरपुर में प्रोफेसर थे। चप्पारण में वे गांधीजी के साथ पूरे सत्याग्रह तक रहे।

सत्याग्रह में गान्धीजी और कृपालानी जी को छोड़कर सभी कार्यकर्ता बिहारी थें कृपालानी नी ने भी अपनी किताब “Gandhi : his life and Thought” में ‘‘नास्ता’’ का जिक्र किया है तथा यह भी लिखा है कि प्रत्येक वकील ने अपने साथ एक सेवक को लायें थे । चूंकि उन दिनों यह परम्परा थी कि मध्यम वर्ग का कोई व्यक्ति अपने सेवक के बगैर नहीं चलता था। बिहार से आये हुए लोग साम 8 बजे नास्ता करते और रात 11 बजे खाना खाते थे। इस प्रथा को गांधीजी ने बदल दिया तथा अब तय किया कि सभी को 8 बजे रात तक भोजन कर लेना है। इसके साथ-साथ सभी सेवकों को वापस करने का आदेश दिया तथा सभी का भोजन सांय तैयार होने लगा।

कृपलानी जी का चम्पारण में रहते समय उनका मुख्य कार्य गांधीजी को भीड़ से बचाना था क्योंकि जो भी रैयत अपना बयान लिखवाने आता था वह गांधीजी का ‘‘दर्शन’’ करना चाहता था। कृपालानी जी चूंकि स्थानिय भाषा नहीं समझ सकते थे इसलिए उन्होंने बयान लिखने का कार्य नहीं किया।

कृपालानी जी ने अपनी किताब में लिखा है कि चम्पारण में सभी कार्यकर्ताओं ने कुछ ही दिनों में आश्रम की तरह जीवन यापन करना आरम्भ कर दिया। व्यवस्था सम्बन्धी सभी कार्य सबको मिलजुल कर करना पड़ता था। सभी ने अपने-अपने सेवक भी वापस भेज दिये थे।

गांधीजी ने मोतिहारी जिला मजिस्ट्रेट को अपने कार्य के सम्बन्ध में पत्र लिखते रहते थे। एक दिन कृपलानी जी और अनुग्रह बाबु को एक पत्र गांधी जी ने दिया जिसे जाकर जिला मजिस्ट्रेट को देना था। जब वे लोग जिला मजिस्ट्रेट को व्यक्तिगत रूप से पत्र देने में असमर्थ रहे तब उन दोनों ने वहा उपस्थित जिला मजिस्ट्रेट कार्यालय के कर्मचारियों को वह पत्र दे दिया। उस समय कर्मचारी लोग वहाँ बैठ कर बाते कर रहे थे । जब कृपलानी एवं अनुग्रह बाबु ने उनलोगों को पत्र दिया तब एक कर्मचारी ने उनलोगों से यह प्रश्न किया कि “क्या आप लोगो को अंग्रजी आती है।’’ इस पर उनलोगों ने धिरे से कहा ‘‘थोड़ी-थोड़ी’’ । तब एक दूसरे कर्मचारी चिहक कर बोला ‘‘इस प्रकार के प्रश्न इनसे क्यों पूछते हो, ऐ सभी इल्ले-बेल्ला हैं ‘‘। यहा इल्ले-बेल्ला से उस कर्मचारी का अभिप्राय LLB से था ।

चम्पारण सत्याग्रह के दौरान कोई घरना, प्रर्दशन एंव सभा का आयोजन नही किया गया नहीं कोई गिरफ्तारी हुई। सिर्फ कृपलानीजी को दो सप्ताह कारावास में रहना पड़ा था । जिसका सत्याग्रह से कोई लेना देना नही था। धटना इस प्रकार है की कृपलानीजी घुड़सवारी के सौकिन थे तथा एक दिन घुडसवारी करनें के क्रम में घोडा अधिक उछलनें लगा और वे खुद गिरगऐ एंव जख्मी हो गये । घोडे़ कि उछलकुद के कारण पास से गुजर रही एक बुढी महिला गीर गई परन्तु उसे कोई जख्म नही लगा था । संयोगवश उसी समय जिला पुलिस अधिक्षक उधर से गुजर रहे थे । उन्होनें पुलिस को असावधानी से घुड़सवारी करने के आरोप में मुकदमा दायर करने का आदेश दिया । कृपलानीजी अदालत में उपस्थित हुऐ तथा मजिस्ट्रेट से आग्रह किया कि वह घटना एक दुर्घटना थी जिसमें वे खुद घायल हुए थे । उनकी यह दलील नही मानी गई एंव उन्हें 40 रूपये का जुर्माना या दो सप्ताह के कारावास की सजा हुई । गांघीजी ने उन्हें 40 रूपऐ न देकर कारावास जाने की सलाह दीया ।




चम्पारण में सभी कार्यकर्ताओं में श्री ब्रजकिशोर प्रसाद सबसे वरिष्ठ थे। वे इस सत्याग्रह से पहले से राजनीति में सक्रिय थे और वे पहले से ही रैयतों के पक्ष में मुकदमें लड़ते आ रहे थे। अतः उनका इस समूह का प्रमुख होना स्वभाविक था।

कृपालानी जी ने यह भी लिखा है कि चम्पारण सत्याग्रह के सबसे ज्यादा कार्य श्री राजेन्द्र प्रसाद ने किया था। जब सरकार ने जाँच बैठा दिया तब सभी रिपोर्ट श्री राजेन्द्र प्रसाद ही तैयार करते थे। आन्दोलन के दौरान कुछ सदस्य अपने व्यावसायिक कार्यों के सम्बन्ध में कुछ दिनों के लिए चम्पारण से चले जाते थे परन्तु श्री राजेन्द्र प्रसाद ने ऐसा विरले ही किया। जबकि वे पटना उच्च न्यायालय में कार्य करने वाले वकीलों में काफी मेधावी थे। गांधीजी एवं कृपालानी जी संध्या का भोजन सूर्यस्त से पहले कर लेते थे और दूर तक टहलने चले जाते थे, यह उन लोगों की दिन चर्या थी। इसी प्रकार टहलने के क्रम में एक दिन कृपालनी जी ने गांधीजी से इसकी चर्चा कर ही डाली कि क्यों गांधीजी इतना कार्य श्री राजेन्द्र प्रसाद को देते हैं, जबकि उनका स्वास्थ्य उतना ठीक नहीं रहता है। इस पर गाँधीजी ने कहा कि वे स्वेक्षा से काम करने वालो मे हैं तथा और लोगों की तुलना में ज्यादा बुद्धिमान हैं । अगर आज ज्यादा काम का बोझ रहेगा तब आगे उनका ही विकास होगा।

गान्धी जी 22.04.17 को बेतिया पहुँचे। रास्ते में प्रत्येक स्टेशन पर दर्शनाभिलाषियों की बड़ी भीड़ उपस्थित थी तथा ट्रेन के पहुँचते ही फूलों की वर्षा होती थी और जय जयकार होती थी। जब बेतिया ट्रेन पहुँची तब वहा स्टेशन और आस-पास इतनी बड़ी भीड़ थी कि ट्रेन को प्लेटफार्म से कुछ पहले ही रोक दिया गया। गांधीजी तीसरे डिब्बे में सवार थे तथा उनके साथ श्री ब्रजकिशोर प्रसाद एवं श्री राननवमी प्रसाद थे। गांधीजी को घोड़ा गाडी से जाना था तथा लोगों ने घोड़ा को अलग कर खुद खिच कर ले जाना चाहते थे परन्तु उन्होंने इससे मना कर दिया तथा वे खुद गाड़ी से उतरने लगे तब घोड़े को गाड़ी में जोत दिया गया।

बेतिया में पूरे रास्ते में अपार भीड़ थी। ज्यादातर लोगों को गान्धीजी के दक्षिण अफ्रीका में किए गए कार्यों की जानकारी नही थी परन्तु मोतिहारी अदालत में 18.04.17 से 21.04.1917 को जो कुछ हुआ उससे जनता में काफी साहस आ गया था। एक समय था कि मिलवरों के विरूद्ध कोई आवाज उठाने का साहस नहीं कर सकता था। अगर किसी ने साहस किया भी और अदालत तक जाने की हिम्मत जुटाई, तो उसे जज के इजलास से खींच कर लाया जाता था तथा लात घूसा एवं लाठियों पीटा जाता था। यह सब पुलिस एवं प्रशासन के सामने होता था। गांधीजी को देखकर लोगों को लग गया था कि उनके दुखों का अन्त होने वाला है। स्टेशन से गान्धी जी एंव उनके साथी बाबू हजारीमल के धर्मशाला में गए। वहां बाबू हजारीमल ने छोटे भाई श्री बाबू सूर्यमल में स्वागत किया तथा जब तक गांधीजी बेतिया में रहे वही रहे तथा बाबु हजारीमल का परिवार वहां सदा देख भाल में तत्पर रहा।

बेतिया में गांधीजी एवं सहयोगियों का रहने और काम करने के ढंग का वर्णन श्री राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी पुस्तक ’बापू के कदमों में’ कुछ इस प्रकार किया है।

‘‘ मैं कह चुका हॅूं कि थोड़े ही दिनों के बाद महात्माजी हममें से कुछ को साथ लेकर बेतिया गए। हमारा एक दफ्तर वहाँ भी खुल गया। बेतिया में हजारीमल की धर्मशाला हैं। उसी के दो-तीन कमरे हम लोगों ने ले लिये। उस धर्मशाला मे उन दिनों उपर पक्की छत तो थी, पर कोई कमरा नही था, केवल उपर जाने के लिए सीढ़िया थी, जिनके उपर भी छत थी, जिसमें थोड़ी सी-तीन फुट चैड़ी और छह फुट लंबी जैसी-जगह मिल गई थी; महात्माजी के काम करने और रहने की यही जगह थी। दिन भर वे वहीं काम करते और रात को वे हम सभी उपर खुली छत पर ही सो जाते। दिन को हम लोग नीचे के कमरों में रहते। कमरे के अंदर, बरामदे में और बाहर भी- अहातें में जहां कहीं जगह मिलती- अपनी-अपनी चटाई लेकर बैठ जाते और रैयतों के बयान लिखा करते। भीड़ इतनी हुआ करती कि धर्मशाला और उसका अहाता खचाखच भरा करता। कुछ दिनों के बाद बेतिया ही हम लोगों का मुख्य स्थान हो गया और वहीं हम अधिक रहने लगे ‘‘।

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